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*जिनसाहस्रनाम टीका - २४७ * दव्यपरियट्टरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो। परिणामादीलक्खो वट्टणलक्खो य परमट्ठो॥
पुनः तायिने ताय संतानपालनयोः धातुः तस्य प्रयोगात् तायनं पालनरक्षणं तायः तायो रक्षणं विद्यते यस्येति तायी तस्मै तायिने पालकाय इत्यर्थः ।
अर्थ : परम उत्कृष्ट विज्ञान जिसके होता है वह परमविज्ञान कहलाते हैं, उन परमविज्ञानी को मेरा नमस्कार हो । श्रुतसागर आचार्यदेव ने लिखा है
कि
जो अन्न विवर्ण, विरस, बींधा हुआ, असात्म्य (स्वरूप चलित) हो, झिरा हुआ हो, भोगा हुआ और रोग को बढ़ाने वाला हो, वह अन्न साधुओं को नहीं देना चाहिए। जो जूठा किया हुआ, नीच लोगों के द्वारा स्पर्श किया हुआ है वा नीच लोगों के योग्य है, दूसरों का उद्देश्य लेकर बनाया गया हो, निन्द्य हो, दुर्जनों के द्वारा छुआ गया हो, देवभक्ष्य आदि के लिए संकल्पित हो, दूसरे ग्राम से लाया हुआ हो, मंत्र के द्वारा लाया हुआ हो, किसी के उपहार के लिए रखा हो, बाजार की बनी मिठाई हो, प्रकृतिविरुद्ध हो, ऋतु विरुद्ध हो; दही, घी-दूध आदि से बना हुआ होने पर बासा हो गया हो, जिसके गन्धरसादि चलित हों, इस प्रकार का भ्रष्ट एवं निन्दित अन्न पात्रों को नहीं देना चाहिए। तथा कठोरता, घमण्ड, मूर्खता, असंयमकारक अन्न, वचनों की कठोरता आदि को तो विशेष रूप से आहार के समय छोड़ देना चाहिए।
अभक्त, कंजूस वा निर्दय, अव्रती, दीन, करुणा योग्य आदि लोगों के घरों में साधु भोजन न करें।
इस प्रकार साधुक्रिया के विशिष्ट ज्ञान को विज्ञान कहते हैं, उस ज्ञान के दाता को भी विज्ञान कहते हैं, उस परम विज्ञान के दाता के सम्बोधन में हे परमविज्ञान ! आपको नमस्कार हो।
सतरह प्रकार के संयम के धारक को परमसंयम कहते हैं, सम्बोधन में । हे परमसंयम ! आपको नमस्कार हो।
पाँच प्रकार के आस्रव से विरक्त, पंचेन्द्रियों का निग्रह, चार कषायों पर