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* जिनसहस्रनाम टीका - २१० *
सुखसाद्भूतः = सुखेन भूयते स्म सुखसाद्भूतः अभिव्याप्तौ संपद्यतो च सातिर्वा मातृगर्भोत्सुखेनोत्पन्न इत्यर्थः = आत्मानंद के आधीन होने से सुखसाद्भूत हैं। अथवा माता के गर्भ से सुखपूर्वक उत्पन्न होते हैं, माता को तथा बालक को दोनों को ही पीड़ा नहीं होती है, अतः सुखसाद्भूत हैं।
पुण्यराशिः = सवेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यं पुण्यस्य राशि: पुंज: पुण्यराशिः | सातावेदनीय, शुभायु, नरकायु छोड़कर देवायु, मनुष्यायु, तिर्यगायु ये तीन, नाम कर्म की ३७ शुभ्र प्रकृतियाँ और उच्चगोत्र इस प्रकार कुल ४२ कर्म - प्रकृतियाँ पुण्यरूप हैं, ऐसी पुण्यराशि से भगवान युक्त हैं।
अनामय:- अविद्यमानः आमयो रोगो यस्येति अनामयः निरामयः इत्यर्थ:- जिनको रोग कभी भी पीड़ित नहीं करता है सभी
तीर्थंकर रोगरहित होते हैं।
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धर्मपालः = उत्तमक्षमादि धर्मः । धर्मं पालयतीति धर्मपालः उत्तम क्षमादि दश धर्मों के रक्षक होने से भगवान धर्मपाल हैं।
जगत्पालः = गच्छतीत्येवंशीलं जगत्, जगत् इति कोऽर्थः मनः पालयतीति जगत्पाल: मनोरक्षकः इत्यर्थः = सर्वदा निरन्तर जिसमें नाना परिणति होती है उसे जगत् कहते हैं, यहाँ जगत् का अर्थ-अभिधेय मन है अतः मन का रक्षण प्रभु ने किया । इसलिए वे मनोरक्षक भी हैं।
धर्मसाम्राज्यनायकः = धर्म एव साम्राज्यं चक्रवर्त्तित्वं तस्य नायक स्वामी धर्मसाम्राज्यनायकः = धर्म ही साम्राज्य है, चक्रवर्तित्व है उसके प्रभु स्वामी हैं। अतः वे धर्मसाम्राज्यनायक हैं।
इस प्रकार सूरि श्रीमदमरकीर्त्तिविरचित जिनसहस्रनाम टीका में दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ।