Book Title: Jinsahastranamstotram
Author(s): Jinsenacharya, Pramila Jain
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 235
________________ * जिनसहननाम टीका - २१९ " विधूताशेषसंसारबंधनो भव्यबांधवः। त्रिपुरारिस्त्वमीशोऽसि जन्ममृत्युजातकम् ॥1 टीका - त्वं हे नाभिनंदन ! असि भवसि भवान् कथंभूतः विधूताशेषसंसारबंधन: विधूतं स्फेटितं अशेष समग्रं संसाराणां पंचधाभवानां बंधनं येन सः विधूताशेषसंसारबंधनः पुनः कथंभूतः भव्यबांधव; भव्यानां रत्नत्रययोग्यानां बांधवो ज्ञातिः स भव्यबांधवः । पुन: कथंभूतः ? त्रिपुरारि:- त्रिपुराणां जन्मजरामरणनगरत्रयाणां अरिः शत्रुः त्रिपुरारिः । पुनः कथंभूतः ईशः ईष्टे परमानंदपदे ईश: स्वामी इत्यर्थः। पुनः कथंभूत; जन्ममृत्युजरान्तकृत् जन्म मातृग निः सरणं, मृत्युः प्राणत्यागः, जरा वार्धक्यं तासां जन्ममृत्युजराणां अन्तं विनाशं करोतीति जन्ममृत्युजरान्तकृत् ॥६॥ अर्थ : हे नाभिनन्दन ! आपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पांच प्रकार के प्रवर्तनमय संसार के बंधन का पूर्ण रूप से नाश कर दिया है। अतः आप 'विधूताशेषसंसारबंधन' कहलाते हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को प्रगट करने योग्य भव्य जीवों के बन्धु होने से 'भव्य बांधव' हैं। जन्म, बुढ़ापा और मृत्यु के नाशक होने से त्रिपुरारि हैं अर्थात् जन्म-जरा एवं मृत्यु रूप तीन नगर के नाशक हैं। भगवन् ! आप परम पद में स्थित हो, महान् हो अत: 'ईश' हो, स्वामी हो। किसी प्रति में त्वमेवासि' पद है अतः जन्म-जरा-मृत्यु के नाशक होने से आप ही 'त्रिपुरारि' हो। माता के गर्भ से निकलने को जन्म, प्राणत्याग को मृत्यु, वार्धक्य को जरा और इन तीनों के विनाशक को जन्म-मृत्यु-जरान्तकृत् कहते हैं ॥६॥ त्रिकालविषयाशेषतत्त्वभेदात्रियोत्थितम्। केवलाख्यं दधच्चलँस्त्रिनेत्रोऽसि त्वमीशितः॥७॥ टीका - हे ईशित: हे स्वामिन् त्वमसि त्वं भवसि त्रिनेत्रः किं कुर्वन् दधत् धरत् किं तच्चक्षुः लोचनम्। किमाख्यं केवलं पंचमज्ञानं तदेवाख्या नाम यस्य चक्षुः तत्केवलाख्यं । कथंभूतं त्रिधोत्थितं त्रिप्रकारेण उत्था उत्थानं विद्यते यस्य १. स्त्वमेवासि

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