Book Title: Jinsahastranamstotram
Author(s): Jinsenacharya, Pramila Jain
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 244
________________ जिनसहस्रनाम टीका - २२८%23 में आने वाली वस्तुओं से युक्त समवसरण में स्थित अनन्तोपभोगी आत्मा को नमस्कार हो ॥१९॥ नमः परमयोगाय नमस्तुभ्यमयोनये। नमः परमपूताय नमस्ते परमर्षये ॥२०॥ दीका - नम: नमस्कार:, कस्मै ? परमयोगाय योगो ध्यानं ध्यानसामग्री । साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतो निरोधनम्। शुद्धोपयोग इत्येते भवत्येकार्थवाचकाः॥ अथवा : न पद्मासनतो योगो न च नासाग्रवीक्षणात्। मनसश्चेन्द्रियाणां च संयोगो योग उच्यते ॥ परमश्चासौ योग: परमयोगः तस्मै परमयोगाय । पुनस्ते तुभ्यं नमः कस्मै अयोनये - योनिर्नवधाऽविद्यमाना योनिर्यस्येति अयोनिस्तस्मै अयोनये तथा चोक्तम् तत्त्वार्थसूत्रे - 'सचित्तशीतसंवृता: सेतरामिश्राश्चैकशस्तद्योनयः।' पुनः नमस्कारोऽस्तु कस्मै परमपूताय पूतः पवित्र: कर्ममलकलंकरहितः परमश्चासौ पूतः परमपूतः तस्मै परमपूताय । पुन: ते तुभ्यं नम: कस्मै ? परमर्षये परमश्चासौ ऋषिः केवलज्ञानर्द्धिसहितः, परमर्षि तस्मै परमर्षये ॥२०॥ अर्थ : साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, वित्तनिरोध और शुद्धोपयोग ये सर्व एकार्थवाची हैं। पद्मासन भी योग नहीं है और नासाग्न दृष्टि भी योग नहीं है अपितु मन और इन्द्रियों का संयोग योग कहलाता है। परम (उत्कृष्ट) योग (शुद्धोपयोग) जिसके है वह परमयोग कहलाते हैं। उन परम योगवाले भगवान् को नमस्कार हो। जिनके सचित्त, अचित्त, संवृत, विवृत, शीत, उष्ण, सचित्ताचित्त, संवृतविवृत शीतोष्ण रूप नव योनि नहीं है वह अयोनि कहलाता है। अथवा चौरासी लाख योनियों से रहित को भी अयोनि कहते हैं, उस अयोनि रूप आपको नमस्कार (हो)। ___ कर्मकलंक से रहित को पूत (पवित्र) कहते हैं। भगवन्, आप कर्मकलंक से रहित होने से परम (अत्यन्त) पवित्र हैं अतः परमपवित्र भगवन आपको

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