________________
* जिनसहस्रनाम टीका - २३२ . भूषण, वेष, शस्त्रों के त्यागी हैं अत; आपका नग्न दिगम्बर रूप समस्त दोषों के अभाव का सूचन करता है।
__ अत्यन्त सेण के धारक हान से परम तजस्वो आपको नमस्कार हो। श्रेष्ठ परमोत्कृष्ट रत्नत्रयरूप मार्गमय भगवन् आपको नमस्कार हो । मोक्षरूप परम पद में स्थित होने से परमेष्ठी ! भगवन् आपको नमस्कार हो ॥२२॥
परमं भेयुषे धाम परमं ज्योतिषे नमः। नमः पारेतमप्राप्तधाम्ने परतरात्मने ॥२३॥
टीका - परम भेयुषे धाम परमं उत्कृष्टं धाम तेज: भां दीप्ति ईयुषे प्राप्ताय नमः। पुनर्नमः परमं ज्योतिषे - परमं ज्योतिः चक्षुः प्रायः परमज्योति; तस्मै परमज्योतिषे, उक्तं च महाकविना श्रीसोमदेवसूरिणा ज्योतिषो लक्षणम्
मते: सूते बीजं सृजति मनसश्चक्षुरपरं, यदाश्रित्यात्माऽयं भवति निख्रिस्लज्ञेयविषयः। विवतैरत्यंतैर्भरितभुवनाभोगविभवैः। स्फुरत्तत्त्वं ज्योतिस्तदिह जयतादक्षरमयम्।।
पुन: नमः पारेतमःप्राप्तधाम्ने तमसः पापस्य पारे पारेतमः प्राप्तं धाम तेजो यस्य इति स पारेतमप्राप्तधामा तस्मै पारेतमप्राप्तधाम्ने तमसः पारप्राप्ततेजसे इत्यर्थः । नमः परतरात्मने परस्मात् सिद्धात् उत्कृष्टः परः परतरः स चासौ आत्मा स्वरूपं यस्येति परतरात्मा तस्मै परतरात्मने, उत्कृष्टस्वरूपायेत्यर्थः ॥२३॥
अर्थ : परम उत्कृष्ट धाम (तेज) की कान्ति को प्राप्त भगवन् ! आपको नमस्कार हो। किसी प्रति में ‘परमर्द्धिजुषे धाम्ने' पाठ भी है जिसका अर्थ है श्रेष्ठ ऋद्धियुक्त धाम (मोक्षस्थान) में रहने वाले आपको नमस्कार हो। श्रेष्ठ ज्योति के धारक होने से परमज्योति वाले आपको नमस्कार हो।
सोमदेव आचार्य ने ज्योति का लक्षण इस प्रकार किया है जो मतिज्ञान की उत्पत्ति में बीज की रचना करता है (कारणभूत है) ऐसी मानस अपर चक्षु ही ज्योति है। जिसका आश्रय लेकर यह आत्मा सम्पूर्ण विषय को ज्ञेय करता है अर्थात् केवलज्ञानी बनता है। अपनी अनन्त पर्यायों के द्वारा परिपूर्ण सारे