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** जिनसहस्रनाम टीका २२४
अघोराय शान्तये इत्यर्थः । नव निष्क्रमणं तृतीय कल्याणं सुनिष्क्रान्तिः तस्यां सुनिष्क्रान्तौ । पुनः ईयुषे प्राप्ताय, कं ? परं सर्वोत्कृष्टं प्रशमं क्षमां । पुनः ईशानाय स्वामिने क्व केवलज्ञानसंसिद्ध केवलज्ञानस्य संसिद्धि: निष्पत्तिस्तस्यां केवलज्ञानसंसिद्धौ चतुर्थकल्याणके ॥१४ ॥
अर्थ : घोर क्रूर रौद्र । न घोर अघोर (शांत) सुनिष्क्रान्त (दीक्षा काल ) के समय अत्यन्त शांत भावको धारण करने वाले अर्थात् दीक्षा कल्याणक के समय परम शांत भाव को धारण करने वाले आपको नमस्कार है। घोर तपश्चरण करते हुए परम शांति (प्रशमभाव ) को प्राप्त आपके लिए नमस्कार हो । यह दीक्षा कल्याणक का वर्णन है । केवलज्ञान की सिद्धि होने पर परम ईश (स्वामी) पने को प्राप्त प्रभुवर तुमको नमस्कार हो । यह चतुर्थ कल्याणक का संस्तवन है || १४ ||
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पुरस्तत्पुरुषत्वेन विमुक्तिपदभागिने ।
नमस्तत्पुरुषावस्थां भाविनीं तेऽद्य बिभ्रते ।। १५ ।।
टीका - ते तुभ्यं नमः नमस्कारोऽस्तु । विमुक्तिपदभागिने विमुक्तिपदं विशिष्टं मोक्षस्थानं भजतीति विमुक्तिपदभागी तस्मै विमुक्तिपदभागिने । केन कारणेन ? पुरस्तत्पुरुषत्वेन पुरोऽग्रे शुद्धात्मस्वरूपत्वेन । पुनः ते नमः कस्मै अद्य बिभ्रते अद्य इदानीं बिभ्रते धरते कां भाविनीं भविष्यन्तीं तत्पुरुषावस्थां शुद्धात्मस्वरूपावस्थाम् ॥ १५ || यहाँ से भगवान की अर्हन्त अवस्था का कथन
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अर्थ : मोक्ष को प्राप्त करने वाले श्रेष्ठ पुरुष होने से आप पुरु हैं (श्रेष्ठ हैं) अथवा पुरु (भविष्य काल में ) शुद्धात्म स्वरूप मुक्तिपद को प्राप्त करने वाले ( विमुक्तिपदभागिने) आपको नमस्कार हो । भविष्यकाल में विमुक्त पद को देने वाली अर्हन्त अवस्था को इस समय धारण करने वाले आपको नमस्कार हो । अथवा भविष्य में शुद्धात्म स्वरूप पुरुष की अवस्था को द्रव्यार्थिक नय से इस समय धारण कर रहे हो ॥ १५ ॥
ज्ञानावरणनिर्ह्रासान्नमस्तेऽनन्तचक्षुषे । दर्शनावरणोच्छेदान्नमस्ते विश्वदर्शिने ।। १६ ।।