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* जिनसहस्रनाम टीका - २२०
तत्त्रिधोत्थितम् । कस्मात् त्रिकालविषयाशेषतत्त्वभेदात् त्रिकालविषयाणां अतीतानागतवर्त्तमानगोचराणामशेषं समग्रं तत्त्वं जीवादिलक्षणं तस्य भेदात् पृथक्करणात् अतस्त्रिनेत्रोऽसीति ॥ ७ ॥
अर्थ : ईशित: (हे स्वामिन्) भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान रूप त्रिकाल के विषयभूत सम्पूर्ण जीवादि तत्त्वों के भेद से तीन प्रकार द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ का उत्पाद - व्यय और ध्रौव्यरूप का सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से उत्पन्न केवलज्ञान रूपी नेत्र को धारण करने वाले होने से आप ही त्रिनेत्र हो । अर्थात् संसारी प्राणी दो चर्म चक्षुयुक्त हैं परन्तु आप तीन लोक के सारे पदार्थों को एक साथ जानने वाले केवलज्ञान रूपी तीसरे नेत्र को धारण करने वाले होने से 'त्रिनेत्र' हो ॥७ ॥
त्वामन्धकान्तकं प्राहुर्मोहान्धासुरमर्दनात् ।
अर्द्धन्ते नारयो यस्मादर्द्धनारीश्वरस्थतः ॥८ ॥
टीका - प्राहुः ब्रुवन्ति स्म, के सूरयः त्वां भवन्तं कर्मतापन्नं कथंभूतम् ? अंधकान्तकं अन्धकस्य मोहस्य अन्तकं विनाशकं कस्मात् मोहांधासुरमर्द्दनात् मोह एव अंधासुरो दैत्यविशेषः तस्य मर्दनात् विनाशादित्यर्थः । अर्द्धन्तेनारयो यस्मादर्धनारीश्वरोस्यतः यस्मात्ते ज्ञानावरणाद्यष्टविध कर्म रिपु घातिरूपा अर्द्ध न अस्यः अतः कारणात् अर्द्धनारीश्वरोऽसि । अर्द्धनारीश्चासौ ईश्वरश्च अर्द्धनारीश्वरः ॥ ८ ॥
अर्थ : हे भगवन् ! आपने मोहरूपी अन्धासुर का नाश किया है अतः आपको अन्धकान्तक कहते हैं।
हे भगवन् ! आपके ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में अर्ध अर्थात् चार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय रूप चार घातिया कर्म नहीं हैं अतः आप ( अर्ध + न + अरि + ईश्वर ) अर्धनारीश्वर कहलाते हैं ॥८ ॥
शिवः शिवपदाध्यासात् ' दुरितारिहरो हरः ।
शंकरः कृतशं लोके शंभवस्त्वं भवत्सुख: ।। ९ ।
२. 'भवत्सुखे' भी पाठ हैं।
१. निवसनात्