________________
* जिनसहस्रनाम टीका २०२
एक ही है, अनेक ही है इत्यादि सर्वथा एक रूप प्रतिपादन करने वाले नय दुर्नय हैं। ऐसे दुर्नयों का प्रभु ने विध्वंस किया और कथंचित् रूप से वस्तु सद् है, असद् है, कथंचित् नित्य है, कथंचित् अनित्य है, इत्यादि सुनयों का स्वरूप प्रभु ने कहा है । अतएव प्रभु हतदुर्नय हैं।
श्रीशः = श्रीणां श्रीदेवीनां ईशः स्वामी श्रीशः । श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धिलक्ष्म्य: पल्योपमस्थितयः श्रीमदुमास्वामिवचनात् = श्री ही आदि देवियों के प्रभु स्वामी हैं अतः वे श्रीश हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वामी आचार्य ने श्री ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये एक पल्य की आयु वाली षट् देवियाँ कही हैं, उनके स्वामी हैं या थे देवियाँ गर्भस्थ प्रभु की माता की सेवा करती हैं अतः भगवान श्रीश हैं ।
श्रीश्रितपादाब्जः = श्रिया लक्ष्म्या श्रितौ सेवितौ पादाब्जौ चरणकमलौ यस्येति श्रीश्रितपादाब्जः = लक्ष्मी के द्वारा प्रभु के दो पदकमल सेवित हैं अतः वे इस नाम के धारक हैं।
वीतभी: = वीता विनष्टा भी भीतिर्यस्येति वीतभीः, 'भीती भीस्त्रीभियोभियः' इति श्री विश्वशंभु प्रणीतैकाक्षरनाममालायां
जिनको किसी प्रकार का भय नहीं है अतः वीतभी हैं। विश्वशंभु नामक एकाक्षर कोश में बा नाममाला में लिखा है, भीः भियौ भियः । नष्ट हो गई भीति जिसकी वे वीतभी कहलाते हैं।
अभयंकरः= अभयं करोतीति अभयंकरः । भयर्त्तिमेघेषुकृञः ख प्रत्ययः = प्रभु भव्यों के संसारभय को नष्ट करके उन्हें अभयदान देते हैं अर्थात् अपने उपदेश द्वारा वे प्राणियों को अभयदान देते हैं।
उत्सन्नदोष : = उच्छन्नाविच्छित्तिं गता दोषाः कामक्रोधादयो यस्येति स उत्सन्नदोषः = प्रभु ने कामक्रोधादि दोषों का नाश किया है। अतः वे उत्सन्न दोष नाम को यथार्थ धारण करते हैं।
निर्विघ्नः = हन् हिंसागत्योः हन् विपूर्वः विहन्यतेऽनेनेति निर्विघ्नः । स्थास्नापिवतिव्याधिर्हानेभ्यः क स्यात् धनिरादेशश्च गमहनः उपधालोपः, निर्गतो