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* जिनसहस्रनाम टीका - २०५ * प्रज्ञापारमित:= प्रज्ञाया ऊहापोहात्मिकाया: बुद्धेः पारं परभागमितो गतः प्रज्ञापारमित:= ऊहापोहात्मक बुद्धि को प्रज्ञा कहते हैं, जिससे वस्तु का कार्यकारण सम्बन्ध सिद्ध होता है, हेतु और साध्य संबंध-सिद्धि होती है। ऐसी प्रज्ञा के अन्त, तट को भगवान् प्राप्त हुए हैं। अत: वे प्रज्ञापारमित हैं।
प्राज्ञः= प्रज्ञा त्रिकालार्थविषया प्रतिपत्तिः, उक्तं च - मतिरप्राप्तविषया बुद्धिः सांप्रतदर्शिनी। अतीतार्था स्मृतिर्जेया प्रज्ञा कालत्रयार्थगा ।।
प्रज्ञाऽस्यास्तीति प्राज्ञः प्रज्ञादित्वाण्णः= वस्तु की, त्रिकाल में भूतभावी-वर्तमान काल की अवस्थायें जानने वाली बुद्धि को प्रज्ञा कहते हैं। भगवान ऋषभनाथ को यह प्रज्ञा थी अत: वे प्राज्ञ थे। केवलज्ञानी थे। प्रज्ञादि के स्वरूप इस प्रकार मति - इन्द्रियों के साथ संबंध न होकर भी पदार्थ को जानने वाले ज्ञान को मति कहते हैं। बुद्धि- वर्तमानकाल के पदार्थ को जानने वाले ज्ञान को बुद्धि कहते हैं। भूतकालीन पदार्थों को जानने वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं। त्रिकाल के पदार्थों को जानने वाले ज्ञान को प्रज्ञा कहते हैं।
यति:= यतते यत्नं करोतीति रत्नत्रये यतिः, सर्वधातुभ्यः 'इ' = जो निरंतर रत्नत्रय में प्रयत्न पूर्वक तत्पर रहते हैं, वे यति हैं।
नियमितेन्द्रियः= नियमितानि नियंत्रितानि बद्धानि इंद्रियाणि स्पर्शन रसन घ्राण - चक्षुः श्रोत्राणि येनेति नियमितेन्द्रियः= स्पर्श, जिह्वा, नासिका, कान, और नेत्र इन पाँचों इन्द्रियों को अपने आत्मस्वरूप में ही प्रभु ने स्थिर किया । अत: वे नियमितेन्द्रिय हैं, जितेन्द्रिय हैं।
भदंत:= भदंत: इन्द्र चन्द्र धरणेन्द्र मुनींद्रादीनां पूज्यपर्यायत्वात् भदंत:इन्द्र, चन्द्र, धरणेन्द्र और मुनीन्द्रों से जो पूजनीय है ऐसे प्रभु को भदन्त कहते
भद्रकृत् = भद्रं कल्याण करोतीति कृतवान् भद्रकृत भदि कल्याणे सौख्ये च भदंते - जो अपना और भव्यों का कल्याण करता हो, और प्रभु अपना तथा भव्यों का कल्याण करते हैं, अत: वे भद्रकृत् हैं। भद्र धातु कल्याण अर्थ