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* जिनसहस्रनाम टीका २०४ *
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के जनों के स्वामी हैं, भगवान पति हैं । समस्त जीवों के रक्षणकर्ता होने से
लोकपति हैं।
लोकचक्षुः = लोके प्राणिवर्गे चक्षुरिव चक्षुः अथवा लोके लोकालोके चक्षुः केवलज्ञानदर्शनद्वयं यस्येति लोकचक्षुः- सर्वप्राणिवर्ग को भगवान् आँखों के समान हैं । अथवा प्रभु केवलज्ञान तथा केवलदर्शन रूप दो आँखों से युक्त हैं।
अपारधीः पारं तीरं कर्म्मसमाप्तौ पारयतीति पारः न पार; अपार: अपारे सिद्धक्षेत्रे धीर्बुद्धिर्यस्येति अपारधीः = पार तीर वाचक शब्द है। कर्म समाप्ति के पार को पा लिया है जिसने एवं प्रभु की बुद्धि, केवलज्ञान अपार है। या अपार सिद्धक्षेत्र में जिसकी बुद्धि है ऐसे प्रभु अपारधी हैं।
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श्रीरधीः = धीरा धैर्यसंयुता निष्प्रकंपा वा धीर्बुद्धिर्यस्येति धीरधीः = धीर निष्प्रकम्प नहीं डरने वाली धैर्ययुक्त बुद्धि को धारण करने वाले प्रभु हैं। अतः धीरधी: हैं ।
बुद्धसन्मार्ग:- सतां निर्वाणसागरादीनामतीततीर्थंकराणां मार्गः सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः सन्मार्गः, बुद्धो ज्ञातः सन्मार्गे येनेति बुद्धसन्मार्ग:महान् सज्जन पुरुष जो भूतकाल में हुए निर्वाण, सागर आदि तीर्थंकरों ने जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र रूप मोक्षमार्ग भव्यों को दिखाया था, उसे आदिप्रभु ने केवलज्ञान से जानकर भव्यों को बताया । अतः भगवान् बुद्धसन्मार्ग हुए।
शुद्ध : = दिवादौ शुद्धशौचे शुध्यतिस्म शुद्ध:, 'राधि सधि क्रुधि क्षुधि बंध शुधि सिद्धि बुद्धि युधि व्याधि साधे र्धातोः इट् निषेध' कर्मकलंकरहित इत्यर्थः = दिवादिगण में 'शुद्ध' धातु शुद्धि या शोच 'पवित्रता' अर्थ में आता है। अतः भगवान शुद्ध हैं, पवित्र हैं, कर्मकलंक से रहित हैं अतः शुद्ध हैं।
सूनृतपूतवाक् = सुष्ट्वन्यतै सुनृतेन सत्येन पूता पवित्रा वाक् वाणी यस्येति सूनृत पूतवाक् = प्रिय तथा सत्ययुक्त भाषण को सूनृत कहते हैं । भगवंत की दिव्यध्वनि प्रिय तथा सत्य और पवित्र है। अतः वे तथानाम धारक हैं।
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