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- जिनसहननाम टीका - २०११ वचसामीशः= वचसा वाणीनां ईश: स्वामी वचसामीश: प्रभु वचनों के स्वामी हैं।
मारजित् = मारं कन्दर्प जितवान् मारजित् । ‘सत्सुद्विषद्रुह युज् विद् भिद् जिनीराजामुपसर्गेप्यनुपसर्गेऽपि विवप् धातोस्तोऽन्त:पानुबंधे' = मार, काम को जीतने से मारजित् कहलाते हैं।
विश्वभाववित् = विश्वेषां त्रिलोकानां भावश्चिताभिप्रायः विश्वभावः, विश्वभावं स्वगतं वेत्तीति विश्वभाववित् = समस्त विश्व में स्थित प्राणियों का अभिप्राय उनकी चिंता प्रभु जानते हैं इसलिए वे विश्वभाववित् कहे जाते हैं। संसार के सारे पदार्थों के ज्ञाता होने से विश्वभाववित् हैं।
सुतनुः= तनु विस्तारे तनोतीति तनुः भ म त चरितस्तरित निमिसिशीभ्य उ: सुष्टु शोभना तनुः शरीरं यस्येति सुतनुः= 'तनु' धातु विस्तार अर्थ में है, जो संकोच-विस्तार को प्राप्त होता है उसको तनु कहते हैं, उत्तम शरीर से युक्त होने से सुतनु कहलाते हैं।
तनुनिर्मुक्तः= तन्वा शरीरेण निर्मुक्तः रहितस्तनुनिर्मुक्तः । अथवा तनोर्निर्मुक्त: अदेहः सिद्धावस्थायामित्यर्थः= प्रभु शरीर से रहित हैं। अथवा प्रभु शरीर से सिद्धावस्था में निर्मुक्त (रहित) हुए हैं।
___ सुगत:= शोभनं गतं गमनं यस्य स सुगत: अथवा सुष्टु शोभनं गतं केवलज्ञानं यस्य स सुगत: अथवा सुगा सुगमना अग्रेगामिनी ता लक्ष्मीर्यस्य स सुगतः= उत्तम मंद गमन होने से प्रभु सुगत हैं अतः प्रभु का गमन मुक्ति की ओर होता है। या सु-उत्तम गत-केवलज्ञान जिनको है वे सुगत हैं। अथवा सुगाशुभगमन जिसका है ऐसी जो ता-लक्ष्मी उससे युक्त प्रभु को सुगत कहते हैं। जिनके आगे-आगे चक्र चलता रहता है।
__ हतदुर्नयः= दुर्नया पूर्वोक्त स्वरूप पररूपादि चतुष्टयप्रकारेण सदेवासदेव नित्यमेवानित्यमेव, एकमेवानेकमेवेत्यादिदुष्टतया प्रवर्त्तते ये नया एकदेशग्राहिणो दुर्नया: कथ्यन्ते। हता विध्वस्ता दुर्नया: मिथ्यात्वादयो येनेति हतदुर्नयः= वस्तु अनेक स्वभावात्मक है तो भी वह सद्रूप ही है, नित्य ही है, अनित्य ही है,