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जिनसहस्रनाम टीका - १९५ * अनिद्रालुः= निपूर्वा द्रा कुत्सायां गतौ निद्रात्येवंशीलो निद्रालुः । दयिपति गृहि स्पृहि श्रद्धातन्द्राभ्यः आलुः' न निद्रालुः अनिद्रालुः अनिद्र इत्यर्थः
नि उपसर्ग पूर्वक 'द्रा' धातु कुत्सित गति में आता है, उससे आलु प्रत्यय लगाने पर निद्रालु बनता है। जिसमें किसी भी इन्द्रिय के द्वारा विषयों का ग्रहण नहीं होता है, न निद्रालु अनिद्रालु है, भगवान् निद्रा से रहित हैं, हमेशा स्वस्वरूप में जागरूक हैं अत: अनिद्रालु हैं।
अतंद्रालुः = तंद्रा इति सौत्रो धातुः आलस्यार्थे वर्तते तंद्रात्येवंशील: तंद्रालुः न तंद्रालुः अतंद्रालुः अनालस्य इत्यर्थः = तन्द्रा धातु आलस्य अर्थ में है, भगवान के, आलस्य के जनक मोहका नाश होने से कभी आलस्य नहीं है, अतः वे अतन्द्रालु हैं।
जागरूक:- जागर्तीत्येवंशीलो जागरूक: आत्मस्वरूपे सदा सावधान: जागरणशील: इत्यर्थः जागरूक इति वचनात् जागृ धातोरूक प्रत्यय:- जो जागृतशील है, अपने आत्मस्वरूप में जो सावधान है, जागरणशील है, जाग् धातु में रुक प्रत्यय लगकर जागरूक बन गया।
प्रमामयः = माङ्माने मेप्रतिदाने प्रमाणं प्रमा। आतश्चोपसर्गे अङ् प्रमया ज्ञानेन निर्वृत्तः प्रमामयः प्रस्तुतवृत्ते मयट् ज्ञानमय इत्यर्थः= 'मा' धातु ज्ञान अर्थ में है और मेधातु 'प्रतिदान' अर्थ में है, मा ज्ञान जिसमें है वह प्रमा कहलाते हैं, 'प्र' उपसर्ग है प्रकृष्ट अर्थ में अतः प्रकृष्ट ज्ञान (केवलज्ञान) या संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित ज्ञान प्रकृष्ट ज्ञान है, 'मयट्' प्रत्यय से प्रमामय' कहलाते हैं। जिनके आत्मप्रदेश केवलज्ञानमय हैं अत: भगवान प्रमामय हैं।
__ लक्ष्मीपतिः= लक्षदर्शनांकनयो; लक्षयति दर्शयति पुण्यकर्माणं जनमिति लक्ष्मीः 'लक्षेर्मोन्तश्च' लक्ष्मी: श्री: तस्याः पति; लक्ष्मीपतिः= 'लक्ष्' धातु दर्शन और चिह्न अर्थ में आता है। अत: जो आत्मा के अनन्त दर्शन ज्ञानादि चिह्न को प्रकट करती है, वा पुण्योदय से प्राप्त समवसरण की विभूति को दिखाती है वह लक्ष्मी कहलाती है। उस लक्ष्मी के पति (केवलज्ञानादि तथा समवसरण लक्ष्मी के स्वामी) होने से लक्ष्मीपति कहलाते हैं।