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* जिनसहस्रनाम दीका - १८८. अधिष्ठानं = अधिष्ठीयते अधिष्ठानम् आविष्टलिंगत्वान्नपुंसकत्व।। अधिष्ठानं - प्रभवैध्यासने नगरचक्रयोरित्यनेकार्थे = प्रभव, अध्यासन, नगर, चक्र आदि अनेक अर्थ में आता है, भगवान प्रभावशाली हैं; तीन लोक रूपी नगर के स्वामी हैं, पुण्यचक्र के सम्पादक हैं अतः अधिष्ठान हैं।
अप्रतिष्ठः= प्रतिष्ठापनं प्रतिष्ठीयतेऽनया प्रतिष्ठा न प्रतिष्ठा स्थापना यस्येति अप्रतिष्ठः आगुरुरित्यर्थ:- प्रतिष्ठापना, स्थापना की जाती है उसे प्रतिष्ठा कहते हैं, अतद्गुण वाली वस्तु में किसी दूसरे गुणों का आरोपण करना प्रतिष्ठा है। जैसे पत्थर की मूर्ति में अर्हद् के गुणों का आरोपण करना। वह प्रतिष्ठा जिसमें न हो, स्वयं के गुण हो उसको अप्रतिष्ठ कहते हैं।
प्रतिष्ठितः= प्रतिष्ठा स्थापना संजाता यस्येति प्रतिष्ठितः तारकितादि दर्शनात् संजातेऽर्थे 'इत' च प्रत्ययः स्थैर्यवा - नित्यर्थ := प्रतिष्ठा, स्थापना जिसकी की गई है वह प्रतिष्ठित कहलाता है। प्रभुवर ने अपने गुणों को अपने द्वारा अपने में विकसित बाके शाश्चित किया है अतः वे प्रतिष्ठित हैं।
सुस्थिर:- योगनिरुद्धे सति उद्भासनेन पद्यासनेन वा सुतिष्ठति निश्चलो भवतीति सुस्थिरः, 'तिमिरुधिमदि मंदिचदि बंधि रुचि सुषिभ्यः किर' इत्यधिकारे अजिरादयः ‘अजिरशिशिर-शिविरस्थिरबदिराः' इत्यनेन सूत्रेण किरप्रत्ययान्तो निपात:= जब योगनिरोध हो जाता है तब भगवंत उद्भासन से या पद्यासन से निश्चल हो जाते हैं, सुस्थिर (भली प्रकार स्थिर हो जाते हैं।)
स्थविर:= तिष्ठत्येवंशीलः स्थविरः । ‘कसिपिसिभासीशस्थाप्रमदां च वरः प्रत्ययः' = जो अचल, अविनाशी रूप से स्थिर हो गये हैं अतः स्थविर कहलाते हैं।
स्थास्नुः= तिष्ठतीत्येवंशीलो स्थास्तुः नाम्लास्थाक्षिपं चिपरै मूलां स्नु:स्थानशील हैं, अपने आप में स्थिर हैं, जिनके आत्मप्रदेश अकंप हैं अतः स्थास्नु
प्रथीयान् = अतिशयेन पृथु प्रथीयान् - अतिशय महान् होने से प्रभु प्रथीयान् कहे जाते हैं।