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* जिनसहस्रनाम टीका - १८९ . प्रथितः= प्रथ प्रख्याने प्रथनं प्रथा 'षानुबंधभिदादिभ्यः स्त्वङ् घटादयः षानुबंधाः प्रथा प्रसिद्धि; संजाता यस्येति प्रथित: तारकितादिदर्शनात् संजातेऽर्थे इत् च प्रत्ययः जगद्विख्यात इत्यर्थ:- अतिशय रूप से किवात हालात होने से प्रथित कहलाते हैं।
पृथु:= प्रथ प्रख्याने रजुतर्कुवल्गुफल्गुशिश्रुरिपुपृथुलघव : एते उ प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते ।
यह शब्द प्रथ (प्रख्यात अर्थ में) धातु से बना है, 'उ' निपात से लगा है अत: जो अत्यन्त विस्तरित है, अनन्त गुणों से व्याप्त है अतः पृथु हैं।
इस प्रकार श्रीमदमरकीर्ति विरचित जिनसहस्रनाम टीका में नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।
# दशमोऽध्यायः ॥
(दिग्वासादिशतम्) दिग्वासा वातरसनो निर्ग्रन्थेशो दिगम्बरः । निष्किञ्चनो निराशंसो ज्ञानचक्षुरमोमुहः॥१॥ तेजोराशिरनन्तीजा: ज्ञानाब्धिः शीलसागरः। तेजोमयोऽमितज्योतिर्योतिमूर्तिस्तमोपहः ॥२॥
अर्थ : दिग्वासा, वातरसन, निर्ग्रन्थेश, दिगम्बर, निष्किंचन, निराशंस, ज्ञानचक्षु, अमोमुह, तेजोराशि, अनंतौजा, ज्ञानाब्धि, शीलसागर, तेजोमय, अमितज्योति, ज्योतिमूर्ति, तमोपह, ये पन्द्रह नाम प्रभु के सार्थक नाम हैं।
टीका : दिग्वासा दिशो वासांसि वस्त्राणि यस्य स दिग्वासा नग्नाटो दिग्यासा: क्षपणश्रमणश्च जीवको जैनः।
आजीवो मलधारी निर्ग्रन्थः कथ्यते सद्भिः॥
इति हलायुधे - पूर्वादि दिशायें ही जिसके वस्त्र हैं उसे दिग्वासा कहते हैं। हलायुध कोश में ये नाम हैं