Book Title: Jinsahastranamstotram
Author(s): Jinsenacharya, Pramila Jain
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 180
________________ * जिनसहस्रनाम टीका- १६५ पापपुण्यमिति तेन रहित इत्यर्थः = न अय:- शुभाशुभ दैव, कर्म को अय कहते हैं, उससे रहित प्रभु को अर्थात् पुग्य तथा अनुयापति प्रभु को अम कहना योग्य है। अनीदृगुपमाभूतो दिष्टिर्दैवमगोचरः । अमूर्ती मूर्त्तिमानेको नैको नानैकतत्त्वदृक् ॥ ९ ॥ अध्यात्मगम्योऽगम्यात्मा योगविद्योगिवन्दितः । सर्वत्रगः सदाभावी त्रिकालविषयार्थदृक् ॥ १० ॥ अर्थ : अनीदृक्, उपमाभूत, दिष्टि, दैव, अगोचर, अमूर्त, मूर्तिमान, एक, नैक, नानैकतत्त्वदृक्, अध्यात्मगम्य, अगम्यात्मा, योगवित्, योगिवंदित, सर्वत्रग, सदाभावी, त्रिकालविषयार्थदृक् ये सत्तरह नाम प्रभु के किस प्रकार सार्थक हैं। टीका - अनीदृक् = 'दृशिरप्रेक्षणे' इदम् पूर्वः अयमिव दृश्यते इति ईदृक् 'कर्मण्युपमाने त्यदादौ दृशेष्टक् च क्विप् इदमीइदमुस्थाने ई वे लो च वर्ग. विरामो, न ईदृक् अनीदृक् उपमारहित इत्यर्थः = वा अर्थ : दृशिर् धातु प्रेक्षण (देखने) अर्थ में है। इदं पूर्व : यह इसके समान है, दिखता है उसको ईदृक् कहते हैं- अतः व्याकरण में 'ईदृकू' उपमा अर्थ में है। जो सब उपमाओं से रहित है वह अनीदृक् कहलाता है। भगवान के समान दूसरा कोई नहीं है, अतः भगवान अनीदृक् हैं। उपभाभूतः = उप पूर्वी मा, माने उपमानं उपमा आतश्चोपसर्गे प्रसिद्धवस्तुकथनं उपमा उपमायां भूयते स्म भूतः संजात: उपमाभूतः, यथा गौर्गवयः तथा जिन: = प्रसिद्ध वस्तु के कथन को उपमा कहते हैं। जैसे किसी सुन्दरी के मुख का वर्णन करने के लिए प्रसिद्ध वस्तुभूत चन्द्र का वर्णन किया जाता है । इस सुन्दरी का मुख चन्द्र के समान है ऐसा कहा जाता है अर्थात् चन्द्र उपमान है और सुन्दरी का मुख उपमेय है। उसी तरह आदिप्रभु चन्द्र की तरह प्रसिद्ध वस्तु है, अत: उपमान रूप है, उपमेय नहीं है । वा गाय जैसा गवय होता है, ऐसी उपमा जिसके नहीं दी जाती स्वयं उपमाभूत हैं।

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