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* जिनसहस्रनाम दीका - १८२ * संध्याभ्रबभ्रुः तथाचोक्त - 'विपुले, नकुले विष्णौ', 'बभ्रुः स्यात् पिङ्गले त्रिषु' संध्याकालमेघवत् पिंगल: इत्यर्थः ।
अर्थ : ब्राह्मण लोक जिसका समीचीन रूप से ध्यान करते हैं अत: संध्या कहलाती है। अथवा सन्धि काल को प्राप्त होने से चारों दिशाएँ सन्ध्या कहलाती हैं। सन्ध्याकालीन बादल के समान शोभा को धारण करने वाले होने से 'सन्ध्याभ्रबभ्रु कहलाते हैं। कपिल, पिंगल के समान वर्ण वाले हैं।
अनेकार्थ कोश में विपुल, नकुल, विष्णु, बभ्रु शब्द में सन्ध्या का कथन है। तीनों सन्ध्या काल के मेघ के समान पिंगल वर्ण के हैं।
हेमाभ:= हिनोति वर्द्धते अनेन हिमन हेमं च हेम्नं च, हेमस्य वा आभा यस्येति हेभाभः सुवर्ण के समान पीत कांति प्रभु ने धारण की थी। अत: हेमाभ
हैं।
तप्तचामीकरच्छवि:= चामीकराकरे भवं चामीकरं स्वर्ण तप्तं उत्कलित चामीकरं तद्वच्छवि: शोभा यस्येति तप्तचामीकरच्छवि: = अग्नि से संतप्त हुए सोने के समान प्रभु के देह का कान्ति - मण्डल होने से प्रभु अग्नितप्त सुवर्ण समान कांति धारण करते हैं।
निष्टप्तकनकच्छाय: कनत्कांचनसन्निभः । हिरण्यवर्ण; स्वर्णाभः शातकुम्भनिभप्रभः ।।९।। द्युम्नाभो जातरूपाभो तप्तजांबूनदद्युतिः । सुधौतकलधौतश्री: प्रदीप्तो हाटकद्युतिः ।।१०।।
अर्थ : निष्टप्तकनकच्छाय, कनकांचनसन्निभ, हिरण्यवर्ण, स्वर्णाभ, शातकुंभनिभप्रभ, द्युम्नाभ, जातरूपाभ, तप्तजाम्बूनदद्युति, सुधौतकलधौतश्री, प्रदीप्त, हाटकद्युति, ये ग्यारह नाम प्रभु के सार्थक नाम हैं।
टीका ; निष्टप्तकनकच्छायः = निष्टप्तं दीप्तं कनकं जातरूपं निष्टप्तकनकं तद्वच्छाया शोभा यस्येति निष्टप्तकनकच्छाय:= कनक सुवर्ण का नाम है और निष्टप्त तपाये हुए सुवर्ण का नाम है अत: तपाये हुए शुद्ध सुवर्ण के समान छाया (कान्ति) वाले होने से निष्टप्तकनकच्छाय नाम प्रभु का है।