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* जिनसहस्रनाम टीका - १७६ # हैं। अर्थात् इन्द्रादि देवों से भगवान पूजनीय हैं इसलिए पुरुदेव हैं। या जिनकी आराधना करने वाले देव पुरु असंख्यात हैं ऐसे देव अर्थात् आदि भगवान असंख्यात देवों से सेवित हैं। अथवा पुरा प्रथमत: भगवान् स्वर्ग के देव थे इसलिए उनको पुरुदेव कहते हैं, भगवान देवों के भी देव थे, देवदेव थे।
अधिदेवता = देव एव देवता 'देवात् तल' अधिकदेवता अधिदेवता बहुदेव इत्यर्थः शक्रादीनां परमाराध्या देवता अधिदेवता = आदिजिनेन्द्र सर्व देवों में मुख्य देव हैं इसलिए उन्हें अधिदेवता कहते हैं। इन्द्रादिक के द्वारा परम आराध्य देवता हैं अतः अधिदेवता हैं।
युगमुख्यो युगज्येष्ठो युगादिस्थितिदेशकः। कल्याणवर्ण: कल्याण: कल्यः कल्याणलक्षणः ।। कल्याणप्रकृतिर्दीप्तकल्याणात्मा विकल्मषः। विकलंकः कलातीतः कलिलघ्नः कलाधरः ॥४॥
अर्थ : युगमुख्य, युगज्येष्ठ, युगादिस्थितिदेशक, कल्याणवर्ण, कल्याण, कल्य, कल्याणलक्षण, कल्याणप्रकृति, दीप्तकल्याणात्मा, विकल्मष, विकलंक, कलातीत, कलिलघ्न, कलाधर, ये चौदह नाम भगवान के सार्थक हैं।
टीका - युगमुख्य:- युगेषु कृतयुगेषु मुखमिव मुख्यः युगमुख्यः युगप्रधानमित्यर्थः- कृतयुग में आदि प्रभु मुख्य हैं।
युगज्येष्ठः- युगेषु कृतयुगेषु ज्येष्ठः अतिशयेन वृद्धः प्रशस्यो वा ज्येष्ठः युगज्येष्ठः= कृत युग में अतिशय श्रेष्ठ तथा ज्येष्ठ तथा अतिशय प्रशस्य माननीय
युगादिस्थितिदेशक:- युगानां कृतयुगानामादिः युगादिः तस्य स्थिति: स्थानं वर्तनोपायं क्षत्रियवैश्यशूद्राणामिति, दिशति उपदिशति यः स युगादिस्थितिदेशकः, कथक इत्यर्थः- कृतयुग के आरम्भ में क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों के जीवनोपायों का भगवान ने उपदेश किया और त्रिवर्णों की रचना प्रकट की।
कल्याणवर्ण:- कल्याणवत् सुवर्णवत् वर्णः शरीराकारो यस्य स