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* जिनसहस्रनाम टीका - १७७* कल्याणवर्णः सुवर्णवर्ण इत्यर्थः = कल्याण सुवर्ण के समान वर्ण शरीर की कान्ति जिनकी वे कल्याणवर्ण हैं।
कल्याण:= कल्यं नीरुजत्त्वमनिति प्राणितीति कल्याणः तथानेकार्थे 'कल्यं प्रभाते, मधुनि, सज्जे, दक्षे, निरामये' कल्य याने नीरोगता और आप कुशल नीरोगता से युक्त हो इसलिए कल्याण हो अथवा आपके द्वारा प्राणियों का कल्याण होता है या कल्याण को प्राप्त होते हैं इसलिए भी कल्याण हो।
कल्यः= कल्येषु कल्याणेषु कुशल: कल्यः तथा चोक्तं 'कल्यं कल्याणवाचिस्यात्' । अथवा कल संख्याने प्राणिनः कलयति संख्यातीति कल्य:= प्राणियों का कल्याण करने में प्रभु कुशल होने से कल्य नाम के धारक हुए अथवा प्राणियों की गणना प्रभु करते थे।
कल्याणलक्षण:= कल्याणं मंगलं चिलं लक्षणं यस्य स कल्याण - लक्षण: अरहंतमंगलमिति लनगन कल्याणं देनि मंगले' अनेकाणे - कल्याण मंगल वही है लक्षण चिह्न जिनका ऐसे प्रभु हैं, क्योंकि 'अरिहंत मंगलं' ऐसा वचन है। कल्याण शब्द के सुवर्ण और मंगल इन अर्थों का नानार्थ कोश में उल्लेख है।
कल्याणप्रकृति:- कल्याणा पुण्यप्रकृतिः स्वभावो यस्येति कल्याण प्रकृतिः पुण्यप्रकृतिरित्यर्थः- कल्याण रूप पुण्यप्रकृति स्वभाव के धारक प्रभु हैं अर्थात् प्रभु के निरन्तर पुण्य प्रकृति का उदय रहता है।
दीप्तकल्याणात्मा = दीप्तं च कल्याणं च दीप्तकल्याणं देदीप्यमानं पुण्यं आत्मा यस्येति दीप्तकल्याणात्मा पुण्यात्मा इत्यर्थः = देदीप्यमान पुण्य प्रकृति से युक्त है आत्मा जिनकी ऐसे प्रभु पुण्यात्मा दीप्त आत्मा हैं।
विकल्मषः = विगतं विनष्टं कल्मषं पापं यस्य स विकल्मष: निष्पापः इत्यर्थः = प्रभु के पापप्रकृतियों का नाश होने से वे पापरहित अर्थात् निष्पाप
विकलङ्कः= विगतः कलङ्कोऽपवादो यस्य स विकलंक: निष्कलंक: इत्यर्थः= कलंक, अपवाद, उससे प्रभु रहित हैं अर्थात् विकलक निष्कलंक हैं।