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* जिनसहस्रनाम टीका- १७१ *
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त्रिलोकाग्रशिखामणि: त्रैलोक्यस्य अग्रे शिखरं त्रैलोक्याग्रं त्रैलोक्याग्रे शिखामणिः चूडारत्नं स त्रैलोक्याग्रशिखामणि: = त्रैलोक्य के अग्रभाग में मुक्तिस्थान को प्राप्त प्रभु चूड़ामणि के समान हैं।
इस प्रकार सूरि श्रीमदमरकीर्त्ति विरचित जिनसहस्रनाम की टीका का आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ।
ॐ नवमोऽध्यायः (त्रिकालदर्थ्यादिशतम् )
त्रिकालदर्शी लोकेशो लोकधाता दृढव्रतः । सर्वलोकातिगः पूज्यः सर्वलोकैकसारथिः ।। १ ।।
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पुराण: पुरुष: पूर्वः कृतपूर्वागविस्तरः । आदिदेवः पुराणाद्यः पुरुदेवोधिदेवता ॥ २ ॥
अर्थ : त्रिकालदर्शी, लोकेश, लोकधाता, दृढव्रत, सर्वलोकातिग, पूज्य, सर्वलोकैकसारथि, पुराण, पुरुष, पूर्व, कृतपूर्वंगविस्तर, आदिदेव, पुराणाद्य, पुरुदेव, अधिदेवता ये पन्द्रहनाम प्रभु के सार्थक नाम हैं जो इस प्रकार हैं।
टीका - त्रिकालदर्शी = त्रिकालमतीतानागतवर्तमानं द्रष्टुमवलोकयितुं शीलमस्यास्तीति त्रिकालदर्शी 'ऋषिस्त्रिकालदर्शी' स्यादिति हलायुधनाममालायाम् = भूत, भविष्य और वर्त्तमान काल ऐसे तीन काल देखने का स्वभाव सामर्थ्य प्रभु में है। हलायुध कोश में ऋषि को त्रिकालदर्शी कहा है।
स्नोक्केशः = लोकस्य त्रैलोक्यस्थितप्राणिगणस्य ईशः प्रभुः लोकेशः = लोक में रहने वाले सब प्राणिगण के आदिजिन स्वामी हैं।
लोकधाता = लोकस्य प्राणिगणस्य धाता स्रष्टा प्रतिपालको वा लोकधाता
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प्रभु जगत् के समस्त प्राणियों के प्रतिपालक हैं, धाता, विधाता हैं इसलिए लोकधाता कहे जाते हैं।