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* जिनसहस्रनाम टीका - १६३ * निष्कलकात्म: = निर्गतः कलङ्क: अपवादो यस्य स निष्कलङ्कात्मा = प्रभु कलंक से, अपवाद से रहित थे। अतः वे निष्कलङ्क नाम को यथार्थ धारण करते हैं।
वीतरागः = वीतो विनष्टो रागो यस्येति वीतरागः। अजेर्वी अथवा ई: विशिष्टा ई: वी. मोक्षलक्ष्मीः तां प्रति इतः प्राप्तो रागो यस्येति स वीतराग:प्रभु की आत्मा से रागद्वेष नष्ट हो गये हैं। अथवा विशिष्ट जो ई लक्ष्मी - मोक्षलक्ष्मी उसके प्रति प्रभु का समाध होने से ना पीतराग हैं।
गतस्पृहः = गता वाञ्छा यस्येति गतस्पृहः, वाञ्छारहितः इत्यर्थः- प्रभु इच्छा रहित होने से गतस्पृह हैं।
वश्येन्द्रियः = वश्यानि स्वाधीनानि इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि यस्येति वश्येन्द्रिय:= प्रभु ने अपनी स्पर्शनादि इन्द्रियाँ अपने वश में कर ली इसलिए वे वश्येन्द्रिय बन गये।
विमुक्तात्मा = विमुच्यते स्म संसाराद्विमुक्तः आत्मा यस्य स विमुक्तात्माप्रभु की आत्मा संसार से विमुक्त हुई। इसलिए विमुक्तात्मा हैं।
निःसपत्नः = निर्गतो विनष्ट: सपत्नः शत्रुर्यस्येति नि:सपत्नः= प्रभु के शत्रु नष्ट हुए थे अतः वे नि:सपत्न हैं।
जितेन्द्रियः = जितानि विषयसुखपराङ्मुखीकृतानि इन्द्रियाणि स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षुः, श्रोत्र लक्षणानि येन स जितेन्द्रिय : । निरुक्तं तु - जित्वेन्द्रियाणि सर्वाणि यो वेत्त्यात्मानमात्मना। गृहस्थो वानप्रस्थो वा स जितेन्द्रिय उच्यते ।।
प्रभु ने इन्द्रियों को जीता था, विषयसुखों से इन्द्रियों को पराङ्मुख किया था। अत: वे जितेन्द्रिय हैं। जितेन्द्रिय शब्द की निरुक्ति इस प्रकार है- जिसने अपनी सब इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की है, तथा जो अपने द्वारा अपने आत्मा को जानता है, ऐसा गृहस्थ हो अथवा वानप्रस्थ उसको जितेन्द्रिय कहना चाहिए।
प्रशान्तः = 'दम् शम् उपशमे' प्रशाम्यति स्म प्रशान्तः रागद्वेषमोहरहितः इत्यर्थः, अथवा प्रकृष्टं सुखं अंते समीपे यस्येति प्रशान्तः = प्रभु राग-द्वेष तथा मोह से रहित होने से प्रशान्त हैं। अथवा प्रकृष्ट-अनन्त-शं-सुख अन्ते जिनके समीप में है वे प्रभु प्रशान्त हैं।