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* जिनसहस्रनाम टीका- १२७
अचिन्त्यः = न चिन्त्यः अचिन्त्यः मनसः अगम्यः इत्यर्थः । चिति स्मृत्यां धातुः - जिनराज का स्वरूप मन से अगम्य है, मन से भी चिन्तनीय नहीं है। चिति धातु स्मृति अर्थ में आती है।
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श्रुतात्मा = श्रुतं द्वादशांगं आत्मा यस्येति श्रुतात्मा, ज्ञानमय इत्यर्थ: - आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह प्रकार के श्रुत ये ही जिनदेव के स्वरूप हैं अर्थात् उनकी आत्मा श्रुतरूप है इसलिए उन्हें श्रुतात्मा कहते हैं ।
विष्टरश्रवाः = विष्टर इव श्रवसी कर्णो यस्य स विष्टरश्रवाः सर्वधातुभ्योऽसुन, अथवा विष्टरात्, सिंहासनात् सवतिधर्मामृतमिति विष्टरश्रवाः = आसन के समान प्रभु के कर्ण कान विस्तृत थे। अतएव वे विष्टरश्रवा हैं। अथवा गन्धकुटी के मध्य में सिंहासन पर बैठकर धर्मामृत का श्रवण कराने से प्रभु विष्टरश्रवा हैं।
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दान्तात्मा = दांत तप: क्लेशसहः आत्मा यस्येति दान्तात्मा, अथवा दो दानं अभयं अंतः स्वभावो यस्य स दान्तः दान्तो दानस्वभाव : आत्मा यस्येति प्रभु का आत्मा तपः क्लेश को सहने वाला होने से वे दान्तात्मा हैं। अथवा 'दो' अभयदान देना ही है स्वभाव जिसका ऐसा प्रभु का आत्मा
दान्तात्मा
होने से वे दान्तात्मा हैं।
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दमतीर्थेश : = दमतीर्थस्य इन्द्रियनिग्रहशास्त्रस्य ईश: स्वामी दमतीर्थेश : उक्तमनेकार्थे -
दमः स्यात्कर्दमे दंडे, दमने दमथेऽपि च । तीर्थ शास्त्रे गुरौ यज्ञे. पुण्यक्षेत्रावतारयोः ॥
ऋषिजुष्टे जले सत्रिण्युपाये स्त्रीरजस्यपि ।
योनौ पात्रे दर्शनेषु च ॥
इन्द्रिय - निग्रह करने वाले शास्त्र को दमतीर्थ कहते हैं, प्रभु उस शास्त्र के ईश हैं, स्वामी हैं। अतः दमतीर्थेश हैं। अथवा 'दम्' धातु अनेक अर्थ में है । जैसे
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