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* जिनसहस्रनाम टीका- १३५
का अर्थ वाञ्छा है और वाञ्छित वस्तु को देने वाली धेनु कामधेनु कहलाती
है।
अरिंजय: = अष्टाविंशतिभेदभिन्नमोहमहाशत्रून् जयति निर्मूलकायं कषतीति अरिंजयः । नाम्नि तृ भृ वृद्धि धारिता - पादमि सहा संज्ञायां
इति श्रीमदमरकीर्त्तिविरचितायां जिनसहस्रनामटीकायां षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
दर्शनमोह कर्म मिध्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व, आदि तीन प्रकार का हैं तथा चारित्रमोह अनन्तानुबन्धि अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन क्रोध-मान-मायालोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद आदि भेदों से पच्चीस प्रकार का है। ऐसे अट्ठाईस भेदों से युक्त मोहकर्म रूप अरि-शत्रु को प्रभु ने जीता है, समूल नष्ट किया है। इसलिए वे अरिञ्जय हैं। इस प्रकार श्रीमदमरकीर्त्ति विरचित जिनसहस्रनाम टीका में छठा अध्याय पूर्ण हुआ ||६||
सप्तमोऽध्यायः (असंस्कृत्सुसंस्कारादिशतम्)
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असंस्कृतसुसंस्कारोऽप्राकृतो वैकृतान्तकृत् । अन्तकृत्कान्तगुः कान्तश्चिंतामणिरभीष्टदः ॥ १ ॥
अर्थ : असंस्कृत सुसंस्कार, अप्राकृत, वैकृतांतकृत, अंतकृत, कान्तगु, कान्त, चिन्तामणि, अभीष्टद ये आठ नाम जिनदेव के हैं।
टीका : असंस्कृतसुसंस्कार : = असंस्कृत: अकृत्रिमः सुसंस्कार: प्रतियत्नः रक्षणे यस्येति स असंस्कृतसुसंस्कारः । तथानेकार्थे- 'संस्कार: प्रतियत्नेऽनुभवे मानसकर्मणि गुणभेदे' । अथवा असंस्कृतसुसंस्कार: सातिशयलाभो यस्य स असंस्कृतसुसंस्कार : अकृत्रिम सुसंस्कार से प्रभु अर्हन् युक्त हैं अर्थात् प्रभु के जो शान्त्यादिक गुण हैं, वे किसी ने उत्पन्न नहीं किये हैं। प्रभु स्वाभाविक