________________
* जिनसहस्रनाम टीका - १५२ * सुहितः = सुष्टु हितं पुण्यं यस्य स सुहित:= भगवान हमेशा भक्तों के लिए हित रूप ही हैं, पुक्क हम हैं। मजा हित में जीत हैं अतः सुहित हैं।
सुहृद् = सुष्ठु शोभनं हृदयं यस्य स सुहृद् = भगवान का हृदय सतत हमेशा शोभित ही रहता है। अतः सुहृद् हैं। सुहृद् का अर्थ अच्छा मित्र है। भगवान सब का हित करने वाले मित्र हैं।
___ सुगुप्त: = गुप्यते स्म गुप्तः सुष्ठु गुप्तो गूढः सुगुप्तः मिथ्यादृष्टिनामगम्य इत्यर्थः= भगवान का स्वरूप मिथ्यादृष्टियों के लिए गूढ़ ही रहता है, मिथ्यादृष्टि जन उनके स्वरूप को नहीं जानते अत: गुप्त हैं। वा निरंतर स्वस्वरूप में लीन रहते हैं इसलिये भी गुप्त हैं।
गुप्तिभृत् = सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः रत्नत्रयस्य गोपनं रक्षणं गुप्तिः, रत्नत्रयं वा गोपायति रक्षयति पालयतीति गुप्तिः, गुप्तिं बिभर्ति स गुप्तिभृत् = मन, वचन तथा शरीर के व्यापारों को पूर्णतया बंद करना गुप्ति है अर्थात् रलत्रय का रक्षण करना, पालन करना, गुप्ति है। गुप्ति रत्नत्रय का रक्षण करती है, पालन करती है। इस गुप्ति को भगवान धारण करते हैं अत: वे गुप्तिभृत् हैं।
गोप्ता = गोपायत्यात्मानं रक्षतीति गोप्ता = भगवान अपने आत्मा का रक्षण करते हैं अतः वे गोप्ता हैं।
लोकाध्यक्षः = लोकानां प्रजानां अध्यक्षः प्रत्यक्षीभूतः लोकाध्यक्षः, अथवा लोकास्त्रीणि भवनानि अध्यक्षाणि लोचनानि यस्येति लोकाध्यक्षः= लोकों को, प्रजाओं को भगवान अध्यक्ष, प्रत्यक्ष रहते हैं। अत: लोकाध्यक्ष हैं। या लोक याने तीनलोक ऊर्ध्व, मध्य, अधो ऐसे तीनों लोकों के भगवान लोचन याने नेत्र के समान हैं अत: लोकाध्यक्ष कहे जाते हैं।
दमेश्वरः = दमस्तपः क्लेशसहिष्णुता तस्येश्वर: स्वामी दमेश्वर:= दम, तप से होने वाले क्लेश को सहन करना यह दम का लक्षण है। ऐसे दम के भगवान ईश्वर हैं, स्वामी हैं, अतः वे दमेश्वर हैं।
इस प्रकार श्रीमद् अमरकीर्त्ति सूरि विरचित जिनसहस्रनाम की टीका में सातवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ।