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* जिनसहस्रनाम टीका - १५८ 2 मडीयान् :- अतिशय दृहः वृक्षायाम्। पृपक्वं मृदुं दृढं चैव भृशं च कृशमेव च । परिपूर्ण दृढं चैव षडेतान् विधोस्मरेत् ॥२८॥
अत्यन्त दृढ़ को दृढ़ीयान् कहते हैं। परिपक्व, मृदु, दृढ़, कृश, परिपूर्ण, दृढ़तर ये छह दृढ़ के नाम हैं।
भगवान् ज्ञान में परिपक्व हैं, दृढ़ हैं, अपने स्वभाव में परिपूर्ण हैं, दया के सागर होने से मृदु हैं, कर्मों का नाश करने से कृश हैं अतः दृढ़ हैं।
इन:= इण् गतौ एति योगिनां ध्यानबलेन हृदय-कमलमागच्छति इति इनः। 'इण जिकृषिभ्योनक्' = ध्यान के सामर्थ्य से योगिजन के हृदयकमल में प्रभु आते हैं। अत: वे 'इन' हैं। 'इण्' धातु गति अर्थ में और ज्ञान अर्थ में है।
ईशिता = ईष्टे ऐश्वर्यवान् भवतीत्येवंशीलः ईशिता = प्रभु अनन्तज्ञानादि ऐश्वर्यसंपन्न हैं अतः वे ईशित्ता हैं।
__ मनोहरः = मनश्चित्तं भव्यानां हरतीति मनोहर:= भव्यों के मन को जिनेश्वर अपनी तरफ खींचते हैं। अतः वे मनोहर हैं।
मनोज्ञांगः = मनो जानातीति मनोज्ञ, मनोहरं सुन्दरं अंगं शरीरावयवं च यस्येति मनोज्ञांग:= प्रभु का शरीर और मुख, नेत्र, नासिका, हस्त, पादादि संपूर्ण अवयव मनोज्ञ, सुंदर होते हैं। जिनको देखकर इन्द्र तृप्त नहीं होता है, इसलिए प्रभु मनोज्ञांग हैं।
धीर: = ध्येयं प्रति धियं बुद्धिमीरयति प्रेरयतीति धीर; अथवा धियो राति ददाति भक्तानामिति धीर: प्रभु भक्तों की बुद्धि को रत्नत्रयरूपी ध्येय के प्रति प्रवृत्त करते हैं। अत: वे धीर हैं, या भक्तों को सद्बुद्धि प्रदान करते हैं, जिससे भक्तों का हित होता है, उनको रत्नत्रय की प्राप्ति होती है।
गम्भीरशासनः = गम्भीर अतलस्पर्श शासनं मतं यस्य स गम्भीरशासन:जीवादि तत्त्वों का गंभीर उपदेश है जिसमें, पूर्वापर विरोधादि दोषों से रहित तथा अहिंसादि गुणों से परिपूर्ण तथा दोष की कणिका भी नहीं है जिसमें ऐसा प्रभु का गम्भीरशासन नाम सार्थक है।