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* जिनसहस्रनाम टीका - १५६ * अविज्ञेयः = न विज्ञेयः ज्ञातुमशक्य इत्यर्थः= उनका स्वरूप हमारे ज्ञान से जानना अशक्य है। अत: वे अविज्ञेय हैं।
अप्रतात्मा = अप्रतर्यः अविचार्यः अवक्तव्यः आत्मा स्वरूपं स्वभावो यस्येति स अप्रतात्मा = भगवान के, आत्मा के स्वरूप का अर्थात् स्वभावों का विचार करने में हमारी बुद्धि असमर्थ है। अत: वे अप्रतात्मा हैं। शब्दों के द्वारा भी उनका स्वरूप अवक्तव्य है।
कृतज्ञः = कृतं कृतयुगं जानातीति कृतज्ञः = भगवान कृतयुग के ज्ञाता हैं। अतः वे कृतज्ञ हैं।
कृतलक्षणः = कृतानि सम्पूर्णानि लक्षणानि श्रीवृक्षशंखाजस्वस्तिकांकुश तोरणादीनि यस्य स कृतलक्षणः सम्पूर्णलक्षण इत्यर्थः= प्रभु के देह पर श्रीवृक्ष, शंख, कमल, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, आदि शुभ एक हजार आठ लक्षण हैं अत: वे कृतलक्षण हैं।
ज्ञानगर्भो दयागभी रत्नगर्भः प्रभास्वः। पद्मगर्भो जगद्गर्भो हेमगर्भः सुदर्शनः ॥३॥ लक्ष्मीवांस्त्रिदशाऽध्यक्षो दृढीयानिन ईशिता । मनोहरो मनोज्ञांगो धीरो गम्भीरशासनः ।।४।।
अर्थ : ज्ञानगर्भ, दयागर्भ, रत्नगर्भ, प्रभास्वर, पद्मगर्भ, जगद्गर्भ, हेमगर्भ, सुदर्शन, लक्ष्मीवान्, त्रिदशाध्यक्ष, दृढ़ीयान्, इन, ईशिता, मनोहर, मनोज्ञांग, धीर, गम्भीरशासन ये सत्तरह नाम प्रभु के हैं।
टीका : ज्ञानगर्भः = ज्ञानं मतिश्रुतावधिर्गर्भ मातुः कुक्षौ यस्य स ज्ञानगर्भ:= जब प्रभु माता के गर्भ में आये तो मति, श्रुत तथा भवप्रत्यय अवधिज्ञान के साथ आये, अत: उनका ज्ञानगर्भ नाम सार्थक है।
दयागर्भः = दया जीवानुकंपा गर्भे मातुः कुक्षौ यस्य स दयागर्भ:- सब प्राणियों पर दया करने का भाव धारण कर प्रभु ने माता के गर्भ में प्रवेश किया अतः वे दयागर्भ हैं।
रत्नगर्भः = रत्नानि गर्भ मातुः कुक्षौ यस्य स रत्नगर्भ:= सर्व गर्भो में