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* जिनसहस्रनाम टीका - १५०* भगवान अणु नहीं हैं अर्थात् महान् हैं। अनेकार्थ कोश में अणु ब्रीही अलय को कहा है। अति सूक्ष्म है, लघु है उसको अणु कहा है। परमात्मा हीन, लघु नहीं है, अतः अनणु हैं।
गुरुरायोगरीयसां = अतिशयेन गुरवो गरीयांसस्तेषामाद्योगुरुः, शास्ता गुरुराधो गरीयसाम् सर्वेषां प्रथमगुरुरित्यर्थः= जो अतिशय गुरु हैं उनमें भी भगवान् आद्य गुरु हैं, आद्य शास्ता हैं। अर्थात् जिनेश्वर सभी के लिए आद्य हैं। इनसे दूसरा कोई भी बड़ा गुरु नहीं है।
सदायोगः सदाभोगः सदातृप्तः सदाशिवः । सदागति: सदासौख्य: सदाविद्यः सदोदयः॥१०॥ सुघोषः सुमुखः सौम्य: सुखदः सुहितः सुहृद् । सुगुप्तो गुप्तिभृद्गोप्ता लोकाध्यक्षो दमेश्वरः ।।११।।
अर्थ : सदायोग, सदाभोग, सदातृप्त, सदाशिव, सदागति, सदासौख्य, सदाविद्य, सदोदय, सुघोष, सुमुख, सौम्य, सुखद, सुहित, सुहृद्, सुगुप्त, गुप्तिभृद्, गोप्ता, लोकाध्यक्ष, दमेश्वर ये उन्नीस नाम प्रभु के हैं।
टीका - सदायोगः = सदा सर्वकालं योगो आसंसारमलब्धलाभलक्षणं परमशुक्लध्यानं यस्य स सदायोग:= सदा सर्वकाल योग - परमशुक्लध्यान रूपी योग भगवान को है। जब तक भगवान संसार में भ्रमण करते थे तब तक इनको परम शुक्लध्यान नहीं था, जब इन्हें इसकी प्राप्ति हुई तबसे वे इससे कभी अलग नहीं रहे अतः वे सदायोग वाले ही रहेंगे। अतः आप सदायोग हैं।
सदाभोगः = सदा सर्वकालं भोगो निज शुद्ध बुद्धैक स्वभाव परमात्मैकलोलीभाव- लक्षणपरमानंदामृतरसंस्वादस्वभावो भोगो यस्य स सदाभोगः। अथवा सत्समीचीन; आभोगो मनस्कारो मनोव्यापारो यस्य स सदाभोग:= भगवान संपूर्ण काल में अपना जो शुद्ध बोधरूप स्वभाव है अर्थात् परमात्मा में अभेदरूप से विलीन होकर जो परमानन्दरूप अमृतरस का आस्वाद लेना उसको सदाभोग कहते हैं। उसमें ही उनका आत्मा नित्य तत्पर रहता है। इसलिए वे सदाभोग हैं। अथवा सदा निरंतर आभोग' समीचीन मन का व्यापार जिनके हो वह सदाभोग है।