________________
* जिनसहस्रनाम टीका - १५३ * 卐 अष्टमोऽध्यायः ॥
(वृहदादिशतम्) वृहवृहस्पतिर्वाम्मी पायमशिस्मारधीः । मनीषी धिषणो धीमान् शेमुषीशो गिसंपतिः ।।१।। नैकरूपो नयोत्तुङ्गो नैकात्मा नैकधर्मकृत् ।
अविज्ञेयोऽप्रतात्मा कृतज्ञः कृतलक्षणः ॥२॥
अर्थ : वृहबृहस्पति, वाग्मी, वाचस्पति, उदारधी, मनीषी, धिषण, धीमान्, शेमुषीश, गिरापति, नैकरूप, नयोत्तुङ्ग, नैकात्मा, नैकधर्मकृत, अविज्ञेय, अप्रतात्मा, कृतज्ञ, कृतलक्षण, ये सत्तरह नाम प्रभु के सार्थक हैं जो इस प्रकार
टीका : वृहबृहस्पतिः = बृहन्ति वर्द्धन्ते इति वृहन्तः, बृहतां पतिः वर्णविकारे बृहस्पतिः, वृहच्चासौ पतिः वृहस्पतिः वृहबृहस्पतिः। वृद्धस्वराचार्य इत्यर्थः= इन्द्र के गुरु होने से वृहस्पति हैं।
वृहद् = धातु वृद्धि अर्थ में है अत: जो वृद्धि को प्राप्त है उसे वृहत् कहते हैं, अथवा वृहत् का अर्थ वर्ण (अक्षर) भी है। उन वर्गों का पति वृहस्पति कहलाता है तथा वृद्धि को प्राप्त स्वरों के आचार्य वृहद्वृहस्पति कहलाते हैं। अतः भगवान सम्पूर्ण स्वरों के उत्पादक वा स्वामी होने से वृहद्वृहस्पति कहलाते
है।
वाग्मी = प्रशस्तावाक् विद्यतेऽस्य स वाग्मी, वाचोम्मिनिः= अत्यंत प्रशस्त हैं वाणी वचन जिनके, तथा जीवादि पदार्थों का यथार्थ विवेचन प्रभु करते हैं इसलिए वाग्मी कहे जाते हैं। .
वाचस्पतिः = वाचां पतिः वाचस्पतिः= ये द्वादशांग वचनों के स्वामी हैं। अत: वाचस्पति हैं।
उदारधी:= उदर्यते उदार: धञ् उदारस्त्यागविक्रमाभ्यां, शूरा धीर्बुद्धिर्यस्य स उदारधी:- त्याग और विक्रम गुण से प्रभु की बुद्धि शौर्ययुक्त है। प्रभु ने विरक्त