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* जिनसहस्रनाम टीका- १४१*
नाशरहित इत्यर्थः । तथानेकार्थे
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अत्ययातिक्रमे दोषे विनाशे दंडकृच्छ्रयोः = 'अत्यय' धातु विनाश, अतिक्रम, दोष, दण्ड, कुष्ट आदि अनेक अर्थों में आता है। अतः जिसका विनाश नहीं है, अपनी मुक्त पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय में गमन नहीं है, जिसमें हिंसादि दोष नहीं हैं, कोई कष्ट नहीं है दण्ड नहीं है अत: प्रभु अनत्यय कहलाते हैं।
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अनाश्वान् = अशु भो अश् मज् पूर्वः जरा आशीर् आनाद् वा इणो नज् पूर्वाच्चाश्नातेः । अतीतमात्रे क्वसु चण्परो: असि द्वि. अभ्या. अस्योदः सर्वत्र अभ्यास आकारस्य दीर्घत्वं दीर्घात्परस्य लोपो न आश्वान् न भुक्तिं कृतवान् अनाश्वान् स्वरेक्षरविपर्ययः सि पूर्ववत् उक्तं च निरुक्तिशास्त्रे
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योऽक्षस्तेनेष्व विश्वस्तः शाश्वते पथि निष्ठितः समस्तसत्त्वविश्वास्यः सोऽनाश्वानिह गीयते ॥३१ ॥
अर्थ : अश् धातु भोजन अर्थ में है। अश् 'नञ्' प्रत्यय करके पूर्व में भोजन किया है उस अतीतकाल में 'क्व' और 'चण्' प्रत्यय करके असि, धातु का अभ्यास अकार को दीर्घ कर के भोजन करना आश्वान् और न करना 'अनश्वान्' है सो ही कहा है- जो अक्ष (आत्मा) उसने विश्वस्त, पथ में निष्ठा रखी है, सारे प्राणियों के विश्वास करने योग्य है, जिसने भुक्ति का त्याग किया है वह इस ग्रन्थ में अनाश्वान् कहलाता है।
शाश्वत
अधिक: = अधि : अधिकः कः आत्मा यस्य सः अधिक: उत्कृष्टात्मेत्यर्थः = प्रभु सब आत्माओं में अधिक यानी श्रेष्ठ आत्मा हैं।
अधिगुरुः = अधिरधिको गुरुः स अधिगुरु, सब गणधरादि गुरुओं में भगवान ही सबके गुरु हैं अतः अधिगुरु कहे जाते हैं ।
सुगी: = सुष्ठुः शोभना गीर्यस्य स सुगी:- सुष्ठु अतिशय शोभायुक्त निर्दोष वाणी के धारक होने से प्रभु सुगी कहलाते हैं।
सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षो निरुत्सुकः । विशिष्टः शिष्टभुक् शिष्टः प्रत्ययः कामनोऽनघः ॥ ५ ॥