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* जिनसहस्रनाम टीका - १४३ * उत्सुक: प्रसृतः स्मृतः' = प्रभु में उतावलापन नहीं है। स्थिर प्रकृति है। वा उत्सुकता उतावलापन नष्ट हो गया है।
शीघ्रता को तूर्ण कहते हैं। आप शीघ्रता से रहित हैं।
विशिष्टः = विशिष्यते इति विशिष्ट उत्तम इत्यर्थः= प्रभु गणधरादिकों से भी विशिष्ट हैं, उत्तम हैं अतः उनको विशिष्ट कहते हैं।
शिष्टभुक् = भुजपालनाभ्यवहारयोः शिष्टान् साधुलोकान् भुनक्ति पालयतीति शिष्टभुक् । शिष्टपालक इत्यर्थः, शिष्टभुत् इत्यपिपाठः तत्र बुध् अवगमने, शिष्टान् बुध्यते जानातीति शिष्टभुत् क्विप् वेलेपि. प्र. सि. सत्यविज्ञानः । शिष्ट, साधु लोगों का भगवान् पालन करते हैं। अत: वे शिष्टभुक् हैं, शिष्टपालक हैं। शिष्टभुत् ऐसा भी पाठ है। उसका अर्थ शिष्टान् बुध्यते जानातीति शिष्टभुत, शिष्ट साधु लोगों को भगवान जानते हैं, ऐसा अर्थ शिष्टभुत् शब्द का है।
शिष्टः = शिष्ट विशेषणे शिष्यते इति शिष्टः सदाचार इत्यर्थः= प्रभु सदाचार से युक्त हैं अतः वे शिष्ट कहे जाते हैं।
___ प्रत्यय: = प्रतीयते येनार्थः स प्रत्ययः- जिनसे अर्थात् प्रभु से आत्मज्ञान भक्तों को प्राप्त होता है। अतः वे प्रत्यय हैं। जिससे अर्थ का प्रत्यय (ज्ञान) होता है उसको प्रत्यय कहते हैं।
कामनः = कामयते तच्छील: कामनः कमनीय इत्यर्थः- प्रभु अत्यन्त कमनीय सुन्दर थे, उनका शील भी सुन्दर था। इसलिए कामन हैं।
अनघः = अविद्यमानमधं पापचतुष्टयं यस्येति अनघ;= प्रभु पाप चतुष्टय से, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तराय इन चार पापप्रकृतियों से रहित होने से यथार्थ अनघ नाम धारक हैं।
क्षेभी क्षेमकरोक्षय्यः क्षेमधर्मपति: क्षमी। अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो ध्यानगम्यो निरुत्तरः॥६॥
अर्थ : क्षेमी, क्षेमकर, अक्षय्य, क्षेमधर्मपति, क्षमी, अग्राह्य, ज्ञाननिग्राह्य, ध्यानगम्य, निरुत्तर ये नौ नाम प्रभु के हैं।