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* जिनसहननाम टीका - १२५ * सर्वक्लेशापहः साधुः सर्वदोषहरोहरः। असंख्येयोऽप्रमेयात्मा शमात्मा प्रशमाकरः ।।८।।
अर्थ : सर्वक्लेशापह, साधु, सर्वदोषहर, हर, असंख्येय, अप्रमेयात्मा, शमात्मा, प्रशमाकर, ये आठ नाम जिनेश्वर के हैं।
टीका - सर्वक्लेशापहः = सर्वान् शारीरभानसागंतून, क्लेशान् दुःखानि अपहति स क्लेशापहः अथवा सर्वेषां भक्तानां क्लेशान् नरकादिदुःखानि अपहन्ति सर्वक्लेशापहः - अपात्क्लेश तमसोरितिङप्रत्ययः = सर्व शारीरिक, मानसिक तथा आकस्मिक क्लेशों को नष्ट करने वाले प्रभु सर्वक्लेशापह हैं। या सर्व भक्तों के क्लेश-नरकादि दुखोंका नाश प्रभु करते हैं। इसलिए वे सर्वक्लेशापह
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साधुः = साधयति रत्नत्रयमिति साधुः 'कृ वा पा जि मिस्वदि साध्य सु दृषपि निज निचरिचटिभ्यः उण्' । तथा चोक्तं - ये व्याख्यंति न शास्त्रं ददति न दीक्षादिकं च शिष्याणां । कर्मोन्मूलनशक्ता ध्यातास्ते चात्र साधवो ज्ञेयाः॥ = जो रत्नत्रय को साधते हैं उन्हें साधु कहते हैं, जिनदेव ने रत्नत्रय को सिद्ध किया, प्राप्त किया अत: वे साधु हैं। साधु का लक्षण ऐसा है
जो शास्त्रों का रहस्य, उपदेश आदिक नहीं देते, शिष्यों को दीक्षा, शिक्षादिक नहीं देते, जो ध्यान में स्थिर रहकर, कर्म नाश करने में सदा तत्पर होते हैं उनको साधु कहते हैं।
सर्वदोषहरः = सर्वे च ते दोषाः सर्वदोषाः, क्षुत्पिपासादयः तान् हरति स्फेटयति निराकरोतीति सर्वदोषहर: = भूख, प्यास, वृद्धावस्था आदिक सर्व दोषों को भगवान ने नष्ट किया है। अतः वे सर्वदोषहर हैं।
हरः = अनंतभवोपार्जितानि पापानि जीवानां हरति निराकरोति इति हर:, अथवा हं हर्ष अनंतसुखं राति ददाति आदते वा हरः, अथवा राज्यावस्थायां हं सहस्रसरं तरलमध्यगं हारं मुक्ताफलदाम राति ददाति आदत्ते वा हरः, अथवा हस्य हिंसाया रो अग्निदाहकः हर: । अश्वमेधादियागाऽधर्मनिषेधक इत्यर्थः = अनन्तभवों में जो पापराशि जीवों ने संचित की है उसका निराकरण किया है