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* जिनसहस्रनाम टीका - ११९ * गुप्त मंत्रणा में मंत्र शब्द का प्रयोग होता है, महान् गुप्त वाद है जिसका वह महामंत्र कहलाता है।
महायतिः = यतते यत्नं करोति रत्नत्रये इति यतिः, 'सर्वधातुभ्यः इ:'। महाश्चासौ यतिः महायति: = रत्नत्रय के पालन में प्रभु ने महान् प्रयत्न किया है, अत: वे महायति हैं। मह रति महायति । यथः काशिश ना करने के लिए जिन्होंने महान् प्रयत्न किया है अतः महायति हैं।
महानादः - महान् नादो ध्वनिर्यस्य स महानादः, अथवा महान् ना संवित् दो दानमस्य स महानाद: = प्रभु की दिव्य ध्वनि जो सब जीवों का कल्याण करती है वही महानाद है। अथवा महान् ना संवित् = रत्नत्रय को पूर्ण प्राप्त करने की प्रतिज्ञा, तथा द: दान सर्व जीवों को अभय देना, ये दो कार्य जिन्होंने किये हैं ऐसे प्रभु ही महानाद हैं।
___ महाघोषः : महान् घोषो योजनप्रमितो ध्वनिर्यस्य स महाघोषः = महान् है घोष जिसका, घोष याने गर्जना-शब्द-आवाज और प्रभु की दिव्यध्वनि एक योजन व्यापी है अतः वे ही महाघोष हैं।
महेज्यः = महती इज्या पूजा यस्येति. महेज्यः = इन्द्रादिकों ने जिनका महापूजन किया ऐसे प्रभु महेज्य हैं।
महसांपतिः = महसां तेजसां पतिः स्वामी महसांपतिः = प्रभु महान् तेज को धारण करते हैं इसलिए महसांपति हैं।
महाध्वरधरो धुर्यो महौदार्यो महिष्ठवाक् । महात्मा महसांधाम महर्षिर्महितोदयः ॥४॥
अर्थ : महाध्वरधर, धुर्य, महौदार्य, महिष्ठवाक्, महात्मा, महसांधाम, · महर्षि और महितोदय, ये आठ नाम प्रभु के हैं जो इस प्रकार सूचना देते हैं।
टीका - महाध्वरधरः = महाश्चासौ अध्वरो यज्ञ: महाध्वर: महाध्वरं महायज्ञं धरतीति महाध्वरधरः, महायज्ञधारी, इत्यर्थः = प्रभु महायज्ञों को अर्थात् महातपरूपी यज्ञ को धारण करने वाले हैं। अत: महाध्वरधर कहलाते हैं।