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*जिनसहस्त्रनाम टीका - १२२*
महाभूतपतिः = महांतश्च ते भूता गणधरचक्रधरादय: महाभूताः तेषां गणधर-चक्रधरादीनां पति; ईशः स महाभूतपतिः - गणधर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों को महाभूत कहते हैं, उनके प्रभु पाते इंश स्वामी है।
गुरुः = 'गृ निगरणे' गिरति धर्ममुपदिशति इति गुरुः ‘कृनोरुतउच्च' = प्रभु धर्ममार्ग का उपदेश करते हैं। अत: वे गुरु हैं। '' धातु निगलने और कहने अर्थ में होती है। 'गु' अन्धकार है 'रु' हन्ता (नाशक) है। शिष्यों के अज्ञान अंधकार का नाश करते हैं।
महापराक्रमः = महान् पराक्रमो विक्रमो यस्येति स महापराक्रमः केवलज्ञानेन सर्ववस्तु-वेदकशक्तिरित्यर्थः = प्रभु ने महापराक्रम, विक्रम को धारण किया है अर्थात् केवलज्ञान से सर्व वस्तु वेदक, जानने की शक्ति को प्रभु ने धारण किया है।
___ अनंत; = नास्त्यंतो विनाशो यस्येति अनंतः = प्रभु अन्त नाश से रहित होने से अनन्त हैं।
महाक्रोधरिपुः = महाश्चासौ क्रोधः कोपः महाक्रोधः, महाक्रोधस्य रिपुः ।। शत्रु: महाक्रोधरिपुः = प्रभु महाक्रोध के लिए शत्रु हैं।
वशी: = वशकान्तौ वष्टि कामयते इति वशः वशः प्रभुत्वमस्यास्तीति वशी उक्तमनेकार्थे - वशो जनस्य स्पृहायतेष्वयत्तत्वप्रत्ययोः =
वश् धातु कान्ति अर्थ में, वश अर्थ में और स्पृहा अर्थ में है। अत: जो देदीप्यमान है, जिन्होंने पंचेन्द्रियों को वश में किया है अथवा सारा जगत् जिनके वश में है, सारे संसारी प्राणी जिनको प्राप्त करने की इच्छा करते हैं अत: भगवान् वशी हैं।
महाभवाब्धिसंतारी महामोहाद्रिसूदनः । महागुणाकरः क्षान्तो महायोगीश्वरः शमी॥६॥
अर्थ : महाभवाब्धिसंतारी, महामोहाद्रिसूदन, महागुणाकर, क्षान्त, महायोगीश्वर, शमी ये छह नाम प्रभु के हैं।
टीका - महाभवाब्धिसंतारी = भव एवाब्धिः भवाब्धि: संसार-समुद्रः,