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जिनसहस्रनाम टीका- १२०
धुर्यः = धुरं वहतीति धुर्यः, उक्तं च धुरं वहति यो धुर्यो धौरेयः स च कथ्यते, धर्म्मधुरंधर इत्यर्थ: धर्म रूपी धुरा को धारण करने वाले होने
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से आप धुर्य हैं।
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महौदार्य: = महत् औदार्यं दानशक्तिर्यस्येति स महौदार्य:, भगवान् निर्ग्रथोऽपि सन् वाञ्छितफलप्रदायकः इत्यर्थः । उक्तं च निष्किंचनोऽपि जगते न कानि, जिनदिशसि निकामं कामितानि । नैवात्र चित्रमथवा समस्ति वृष्टिः किमु खादिह नो चकालि अथवा वैकलेसीति भावः = प्रभु महान् औदार्य को धारण करने वाले हैं, उनकी दानशक्ति उदात्त है। भगवान निर्ग्रन्थ, परिग्रह रहित होने पर भी वांछित फल देते हैं। उक्तं च- हे जिन ! आपके पास कुछ भी नहीं है, परन्तु आप जगत् को कौन सी इच्छित वस्तु नहीं देते अर्थात् सब लोगों को आप इच्छित वस्तुओं को प्रदान करते हैं इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है क्योंकि आकाश के पास कुछ भी नहीं तो भी क्या आकाश से वर्षा होती नहीं देखी जाती। अथवा वैराग्यकाल में भगवान महादान देते हैं, सर्वत्याग करते हैं। अतः वे महौदार्य हैं।
महिष्ठवाक् = महिष्ठा पूज्या वाक् यस्य स महिष्ठवाक् = प्रभु की वाणी महिष्ठा सर्व इन्द्र गणधरादिकों से पूजनीय है। अतः वे महिष्ठवाक् हैं। श्रेष्ठ मधुर वचनों के स्वामी होने से महिष्ठवाक् हैं।
महात्मा = महान् केवलज्ञानेन लोकालोकव्यापकः आत्मा यस्य स महात्मा - केवलज्ञान के द्वारा जिनका आत्मा लोकालोक में व्यापक हुआ है अर्थात् लोकालोक को जानता है, ऐसे प्रभु महात्मा हैं। अत्यन्त पवित्र आत्मा होने से आप महात्मा हैं ।
महसांधाम: = महसां तेजसां धाम आश्रयः स महसांधाम = प्रभु महस् को, तेज को धारण करते हैं, तेजों के निवासस्थान हैं, आश्रय हैं।
महर्षि: = महांश्चासौ ऋषिः संपन्न महर्षिः, अथवा रिषि ऋषि गतौ ऋषति गच्छति बुद्धिऋद्धि, औषधर्द्धि, विक्रियद्धि, अक्षीणमहानसालयद्धि, वियद्गमनर्द्धि, केवलज्ञानर्द्धिं प्राप्नोतीति ऋषिः । 'गृहनाम्युपधात्किः,' अथवा 'ऋषी ची ब्र आदानसंवरणोः '