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जिनसहस्रनाम टीका - १५६ * विश्वशंभु मुनि प्रणीत एकाक्षर नाममाला में 'दो' धातु दान, पूजा, क्षीण, | दान, शौण्ड, पालक, देव, दीप्ति दुराधर्ष, दो (भुजा), दीर्घदेशक, दया, दमन, दीन, दंशक, दम, वध-बंधन, बोध, बाल, बीज, बलोदित, विदोष, पुमान्, चालन, चीवर, श्रेष्ठ आदि अनेक अर्थ में लिखा है। अत: महादया, महापूजा जिसके हों वह महादम कहलाता है।
महाक्षमः = महती अनन्याऽसाधारणा क्षमा प्रशमो यस्य स महाक्षम:, अद्वितीय असाधारण क्षमा प्रशम भाव जिसके होता है वह महाक्षम है।
महाशील: = महान्ति अष्टादशसहस्रगणनानि शीलानि वृत्तरक्षणोपाया यस्य सः महाशीलः, चारित्र की रक्षा के उपाय स्वरूप जिसके अठारह हजार शील के भेद परिपूर्ण होते हैं, वह महाशील है।
। महायज्ञः = महान् घातिकर्मसंमिद्धोमलक्षणो यज्ञो यस्य स महायज्ञः । अथवा महान् इन्द्र-धरणेन्द्र-नरेन्द्र-महामण्डलेश्वरादिभिः कृतत्त्वात् त्रिभुवन भव्यजन-मेलापक संजातत्वात् क्षीरसागरजलधारा - स्वर्ग संजात चंदन काश्मीर रज-कृष्णागरुगंधद्रव मुक्ताफल-अक्षतामृतपिण्डहवि: पाक नैवेद्य दिव्यरत्नप्रदीपकालागरुसिताभ्र धूप - कल्पतरूत्पन्नान - नालिकेर - कदलीपनसादिफल- महार्घ कुसुम प्रकर दर्भदूर्जा सिद्धार्थ - नंद्यावर्त - स्वस्तिक - छत्र - चामर-दर्पणादिगीतनृत्यवादित्रादि संभूतो यज्ञो यस्येति महायज्ञः अथवा महान् केवलज्ञान - यज्ञलक्षणो यज्ञो यस्य भवति स महायज्ञः अथवा महान् पंचविधो यज्ञो यस्य स महायज्ञः। तथा चोक्तं
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । होमो देवो बलिभाँतो, नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥७॥
महान् घातिकर्मरूपी समिधा का जिसने होम किया, जिसका ऐसा यज्ञ वह महायज्ञ है। अथवा महान् इन्द्र - धरणेन्द्र - नरेन्द्र - महामण्डलेश्वर आदि के द्वारा तीनों लोकों के भव्यजन का मिलाप होने से क्षीरसागर की जलधारा, स्वर्गोत्पन्न मलयज - चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अर्घ्य से, गीत - नृत्य - वादित्र आदि से उत्पन्न जिसकी पूजा रूप महायज्ञ किया