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* जिनसहस्रनाम टीका - १०७ अग्रिमः = अग्रस्य भावोऽग्रिमः, 'पृथ्वादिभ्यः इमन्वा' = सबसे, सारी जनता से अग्रसर होने से आप अग्रिम हो।
अग्रजः = अग्रे जातः अग्रजः। तथा चोक्तम्प्रघात संघातयोर्भिक्षा, प्रकारे प्रथमेऽधिके। पलस्य परमाणो वा लंबनो परिवाच्ययोः ।। पुरः श्रेष्ठो दशस्वेव विद्भिरग्रं च कथ्यते । प्रागाधग्रज पर्यंत शब्दा: श्रेष्ठार्थवाचकाः ज्ञेयाः॥ सबसे प्रथम उत्पन्न हुए अथवा सबसे ज्येष्ठ होने के कारण अग्रज हैं ।
प्रघात, संघात, भिक्षा, प्रकार, प्रथम, अधिक, पल और परमाणु का आलंबन, पुर और श्रेष्ठ इन दश शब्दों के अर्थ में अग्र शब्द का प्रयोग होता है। इस स्तोत्र में प्राग शब्द को आदि लेकर अग्रज पर्यन्त शब्द श्रेष्ठार्थ के वाचक हैं।
महातपा महातेजा महोदर्को महोदयः। महायशा महाधामा महासत्त्वो महाधृतिः ।।८।।
अर्थ : महातपा, महातेजा, महोदर्क, महोदय, महायशा, महाधामा, महासत्त्व, महाधृति ये आठ नाम जिनप्रभु के हैं।
टीका - महातपा = महत्तपो द्वादशविधं तपो यस्य स महातपाः - अनशन, अवमौदर्य आदि छह प्रकार के बाह्यतप तथा प्रायश्चित्त, विनय आदिक छह प्रकार के अंतरंग तप ऐसे बारह तप जिनदेव ने किये इसलिए वे महातपा
हैं।
महातेजा = महत्तेजः पुण्यं यस्य स महातेजा, उक्तं च -
पुण्यं तेजोमयं प्राहुः प्राहुः पापं तमोमयं । तत्पापं पुंसि किं तिष्टे यादीधितिमालिनि। महान् तेज - पुण्य जिसके है वे प्रभु महातेजा हैं, तेज और पुण्य