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* जिनसहस्रनाम टीका - ६०* असंग: = अविद्यमानः संगः परिग्रहः यस्य स असंगः = जिनके परिग्रहों का पूर्ण अभाव है ऐसे जिनवर असंग हैं।
विविक्तः = सर्वविषयेभ्यः पृथग्भूतो विविक्त; विविच्यते स्म विविक्तः विचिरपृथग भावे - संपूर्ण पंचेन्द्रिय विषयों से जिनराज अलग होते हैं, विचिर धातु पृथक् भाव में है। अत: जो सर्व विभाव भावों से पृथक् होकर एकाकी शुद्धात्मा में रमण करते हैं, लीन रहते हैं अतः आप विविक्त कहलाते हैं।
वीतमत्सरः = बीतो विनष्टो मत्सरः परेषां शुभकर्मद्वेषो वा यस्य स वीतमत्सर; - दूसरों के शुभ कर्म को देखकर जो द्वेष होता है ऐसा मत्सर भाव जिनसे निकल गया है। ऐसे जिनेश्वर वीतमत्सर कहे जाते हैं।
विनेयजनताबंधुर्विलीनाशेषकल्मषः । वियोगो योगविद्विद्वान् विधाता सुविधिः सुधीः ।।४॥
अर्थ : विनेयजनताबंधु, विलीनाशेषकल्मष, वियोग, योगवित्, विद्वान्, विधाता, सुविधिः, सुधी। ये जिनेश्वर के नाम हैं।
विनेयजनताबन्धुः = विनेयजनस्य भावः विनेयजनता, विनीयन्ते शिष्यन्ते गुरुभिरिति विनेया: शिष्याः, विनेयानां भव्यानां जनानां समूहो भावो बा विनेयजनता, तस्याः बन्धुः परिच्छदवर्गः स विनेयजनताबन्धुः = गुरुओं के द्वारा विनयादिक गुण जिनको सिखाये जाते हैं, उनको विनेय शिष्य कहते हैं। उनके समूह को जिनेश्वर आत्महित का उपाय बताते हैं अत: विनेयजनताबन्धु हैं। वा विनयशील, भव्य प्राणियों के समूह के बन्धु होने से विनेयजनताबन्धु हैं।
विलीनाशेषकल्मषः = जिनके संपूर्ण कर्ममल नष्ट हो गए हैं।
वियोगः = विशेषेण योगो मुक्तिस्त्रिया सह यस्य स वियोग : - मुक्तिस्त्री के साथ जिनका सम्बन्ध कभी टूटने वाला नहीं है ऐसे जिनपति को वियोग कहते हैं।
'वि' विशेष रूप से 'योग' मुक्ति रूपी स्त्री के साथ सम्बन्ध है। अत: वियोग है अथवा आत्मप्रदेश के कम्पन रूप योग से रहित है।