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जिनसहस्रनाम टीका ७८
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निर्माति निर्मिमिते च । अनुतिष्ठति विदधाति च रचयति कल्पयति चेति, करणार्थे वुणतृचौ तृच् प्रत्यय: सृजि दृशौ रागमोकारः, स्वरात्परो घुटि गुणवृद्धिस्थाने छशोश्चषत्वं तवर्गस्य षटवर्गाट्टवर्ग:, आसौ सिलोपश्च स्रष्टा इति जातं जो पापिष्ठ लोक जिनेश्वर की निन्दा करते हैं उनको जिनभगवान नरकगति में तथा तिर्यग्गति में उत्पन्न करते हैं । मध्यस्थ लोग न निंदा करते हैं न स्तुति करते हैं उनको मनुष्य गति में उत्पन्न करते हैं और जो स्तुति, पूजा, आराधना करते हैं उनको स्वर्ग ले जाते हैं, जो ध्यान करते हैं उनको कर्ममुक्त कर देते हैं। 'सृज्' धातु के करने, नमस्कार, स्तुति, आराधना, निर्माण, रचना, अनुष्ठान आदि अनेक अर्थ होते हैं।
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पद्मविष्टरः = पदगतौ पद्यते याति लक्ष्मी पद्मं 'अर्ति हु सु धृक्षिणीपदभाषास्तुभ्यो मः' । सूत्र, आच्छादने सृ वि पूर्व्वः विस्तरणं विष्टरः स्वरः वृअल नाम्यं गुणः वे स्तृणाते संज्ञायाः सस्य षत्वं तवर्गस्य टः, पद्मंयोजनैकप्रमाणं सहस्रदलकनक कमलं तदेवविष्टरः आसनं यस्य स पद्मविष्टरः कमलासन: इत्यर्थः = 'पद्' धातु गति अर्थ में है, 'मा' लक्ष्मी होती है जो लक्ष्मी को प्राप्त है अर्थात् जो लक्ष्मी स्थान है वह पद्म कहलाता है । 'सृञ्' धातु आच्छादन और विस्तरण अर्थ में आती है 'वि' उपसर्ग पूर्वक स्तरणं विस्तरणं । नामि परे स् का ष् आदेश हो जाता है और 'ष' के समीप तवर्ग का टवर्ग हो जाता है। अतः विष्टर ( सिंहासन) अर्थ होता है। पद्मा लक्ष्मी है आसन जिसका अर्थात् समवसरण लक्ष्मी के स्वामी वा पद्म (कमल) है आसन जिसका वह पद्मविष्टर कहलाते हैं । एक हजार पाँखुड़ी वाले कनक निर्मित कमल पर आसीन होने से पद्मविष्टर कहलाते हैं।
पद्येश:
: = पद्मस्य पद्मनिधे: ईश: स्वामी पद्मेश : भगवान पद्मनामक निधि के स्वामी हैं, अतः वे पद्मेश हैं ।
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पद्मसंभूतिः = पद्मानां कमलानां सम्भूतिर्यस्मात् स पद्मसंभूतिः = पद्मों की, कमलों की, उत्पत्ति जिनसे होती है ऐसे जिनराज पद्मसंभूति हैं। प्रभु जब देशना के लिए विहार करते हैं उस समय उनके आगे पीछे सात-सात और बीच में एक कमल ऐसे कमलों की रचना होती है; जिसमें कुल २२५ कमल होते हैं।