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* जिनसहस्रनाम टीका - ९२ * श्रुतश्च विद्यते भगवास्तु सर्वेषां जन्मप्रभृत्यपि व्याधितानां प्राणिनां नाममात्रेणापि व्याधि-विनाशं करोति, कुष्ठिनामपि शरीरं सुवर्णशलाका सदृशं विदधाति, जन्मजरामरणं च मूलादून्मूलयति तेन भगवान् भिषग्वरः = जिनदेव सर्ववैद्यों में वर-प्रधान श्रेष्ठ वैद्य हैं क्योंकि जन्म से भी जो रोगों से पीड़ित हैं ऐसे प्राणियों के आपके नाम-स्मरण से रोग विनष्ट होते हैं। जो कुष्ठ रोग से पीड़ित हैं उनके शरीर को प्रभु स्वर्णशलाका के समान चमकीला कर देते हैं, इतना ही नहीं भगवान मूल से ही उनके जन्म जरा मरण को उखाड़ कर फेंक देते हैं इसलिए आपही सर्वश्रेष्ठ वैद्य हैं।
वर्यः = वियते वर्यः स्वराद्यः सेवाया-तेंद्रादिभिर्वेष्ट्य इत्यर्थः । वयों वरणीयो मुक्ति लक्ष्म्याभिलाषणीय इत्यर्थः, मुख्यो वा वर्यः - सेवा के लिए आये हुए इन्द्रादिकों से प्रभु वन्ध हैं या प्रभु को मैं वरूंगी ऐसी अभिलाषा मुक्ति रानी मन में रखती है इसलिए प्रभु की हैं। या सब देव में मुख्य है, श्रेष्ठ हैं इसलिए भी वर्य हैं।
वरदः = वरमभीष्टं स्वर्गमोक्षं ददातीति वरदः = वर अभीष्ट ऐसे स्वर्गमोक्ष को भगवान् भक्तों को देते हैं अत: वे वरद हैं। प्रभु के नाम से इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है अत: वे वरद हैं।
परम: = पृ पालनपूरणयोः पृणाति पूरयति मनोभीष्टैर्वसुभिः सपरमः, 'पृप्रथिचरिकर्दिभ्यो मः' - पूर्ण करते हैं, पालन करते हैं मनोवांछित धनादिक लक्ष्मी से भक्तों को जो ऐसे वे प्रभु परम हैं। अथवा आपकी ज्ञानादि लक्ष्मी अतिशय श्रेष्ठ है अतः आप परम हैं।
___ पुमान् = पुनाति पुनीते वा पवित्रयति आत्मानं निजानुगं त्रिभुवनस्थितभव्यजनसमूहं स घुमान् । पूजोह्रस्वश्च सिर्मन्तश्च पुमन्स पातीति पुमानिति केचित् = प्रभु अपने को रत्नत्रय से पवित्र करते हैं तथा अपना अनुसरण करने वाले त्रैलोक्य में स्थित भन्यजनसमूह को भी पवित्र करते हैं अत: प्रभु पुमान् हैं। पातीति पुमान् इति केचित् जो रक्षण करता है उसे पुमान् कहना चाहिए ऐसी निरुक्ति अन्य जन कहते हैं। वा स्व पर को पवित्र करने वाले होने से पवित्र