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* जिनसहस्रनाम टीका १००
अर्थ : वेदाङ्ग, वेदवित्, वेद्य, जातरूप, विदांवर, वेदवेद्य, स्वसंवेद्य, विवेद, वदतांवर ये नौ नाम जिनेश्वर के हैं ।
वेदाङ्गः = शिक्षा, कल्पो, व्याकरणं, छंदो, ज्योतिर्निरुक्तं चेति वेदस्यांगानि, वेदांगानि यस्य स वेदांगः, अथवा वेदस्य केवलस्य ज्ञानस्य प्राप्ती भन्त्र्यप्राणिनां अंग उपायो यस्मादसौ वेदांग - वेद के छह अंग हैं। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, ज्योतिष तथा निरुक्त ऐसे भेद अन्य लोग मानते हैं। परन्तु जैन मत में वेदांग शब्द का अर्थ ऐसा है- वेद जीवादि पदार्थों को नय तथा प्रमाण के द्वारा जान लेना वेद है। या सम्यग्ज्ञान ही जिनेश्वर का आत्मा है, स्वरूप है, अतः वह वेदांग है । या केवलज्ञान की प्राप्ति होने के लिए भव्य प्राणियों के लिए जिनदेव अंग-उपाय हैं। अथवा केवलज्ञान की प्राप्ति होने का अंग उपाय जिनप्रभु से भव्यों को मिलता है अतः वे वेदांग हैं।
वेदविद् = वेदान् स्त्रीपुंनपुंसकवेदान् वेत्तीति वेदवित्, अथवा येन शरीराद्भिन्न आत्मा ज्ञायते स वेदो भेदज्ञानं, तं वेतीति वेदवित् । उक्तं च निरुक्तिविवेकं वेदयेदुच्चैर्यः शरीरशरीरिणोः । संप्रीत्यैर्विदुषां वेदो नाखिलक्षयकारणं ॥
स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद, इन तीनों वेदों को जानने वाले भगवान वेदवित् हैं, मोहकर्म के भेदरूप जो स्त्रीवेदादि नोकषाय हैं, उनकी उदीरणा होने से उत्कट रूप में प्रकट होती है, इत्यादि इनके स्वरूप का सूक्ष्म ज्ञान जिनदेव को होता है अतः वे वेदवित् हैं। अथवा शरीर से आत्मा भिन्न है ऐसा ज्ञान जिससे होता है उस भेदज्ञान को वेद कहते हैं । उसको जानने वाले जिनराज को वेदवित् कहते हैं । इस विषय में और भी कहा है- जो शरीर को तथा शरीर को धारण करने वाले संसारी आत्मा के विवेक को, भेदज्ञान को जानता है, उसे वेद कहते हैं अर्थात् जैनागम को वेद कहते हैं ऐसा ही वेद विद्वज्जनों को आनंद प्रदान करता है परन्तु जो यज्ञ में प्राणियों की आहुति देने के लिए कहता है उसे वेद कहना योग्य नहीं है।
अथवा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग रूप चारों वेदों को जानने वाले, कथन करने वाले होने से 'वेद' कहलाते हैं।