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* जिनसहस्रनाम टीका - १०१ * वेद्यः = विद् ज्ञाने नियुक्तो वेद्यः, अथवा वेदितु योग्यो वेद्यः = जो योगियों के ज्ञान में आवश्यकता से नियुक्त हैं वे प्रभु वेष्य हैं। अर्थात् योगियों को भेदज्ञान की प्राप्ति होने के लिए जिनेश्वर के स्वरूप का ज्ञान होना आवश्यक है, अथवा भगवान् हमारे द्वारा जानने योग्य हैं इसलिए वे वेद्य हैं।
जातरूप: = जातस्य जन्मनः रूपं यस्य स जातरूप: नग्नरूप: इत्यर्थः - भगवान का रूप जात-जन्म के समय का है अतः वे जातरूप हैं, नग्नरूप हैं, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह रहित रूप को धारण करते हैं।
विदाम्वरः = विदां विद्वज्जनानां वरः श्रेष्ठो स विदांवर: क्वचिन्नुलप्यते विभयोभिधानात् - विद्वज्जनों में प्रभु ही सर्वश्रेष्ठ हैं अत: विदाम्वर हैं।
वेदवेद्यः = वेदेन ज्ञानेन वेद्यः वेदितुं योग्यः वेदवेद्यः - ज्ञान से भगवान हमारे द्वारा जानने योग्य हैं । वेद का अर्थ-श्रुतज्ञान है और श्रुतज्ञान के द्वारा भगवान जानने योग्य हैं अतः वेदवेद्य हैं।
स्वसंवेद्यः - स्वेन आत्मना सम्यग् वेद्यो ज्ञेयः स स्वसंवेद्यः = अपनी आत्मा द्वारा भली प्रकार जानने योग्य ज्ञेय है वह स्वसंवेद्य है, अथवा भगवान का ज्ञान हम स्वसंवेदन से ही कर सकते हैं, अनुभव से ही जान सकते हैं।
विवेदः = विद्ज्ञाने विद् विदन्त्येनेनेति वेदः विशिष्टो वेदो ज्ञानं स विवेदः विशिष्टज्ञानीत्यर्थः = वि विशिष्ट वेद (ज्ञान) जिनको है ऐसे भगवान विवेद हैं, विशिष्ट ज्ञान याने केवलज्ञान । भगवान केवलज्ञान युक्त होने से विवेद हैं।
वदताम्वरः = वदतां तार्किकाणांमध्ये वरः श्रेष्ठः स वदताम्वर; = जिनदेव वदतां अर्थात् तार्किकजनों में वरः श्रेष्ठ हैं। अत: वदताम्वर हैं।
अनादिनिधनो व्यक्तो व्यक्तवाग्व्यक्तशासनः। युगादिकृधुगाधारो युगादिर्जगदादिजः॥४॥
अर्थ : अनादिनिधन, व्यक्त, व्यक्तवाक्, व्यक्तशासन, युगादिकृत्, युगाधार, युगादि, जगदादिज ये आठ नाम जिनप्रभु के हैं।
टीका - अनादिनिधनः = न विद्यते आदिनिधने उत्पत्तिमरणे यस्य स अनादिनिधनः, अथवा अन्यस्य जीवितस्य आदिर्जन्म तत्पर्यंत न्यतिशयेन धनं