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* जिनसहस्रनाम टीका - १०४ * अनिद्रियः = न इंद्रियाणि स्पर्शन रसन घ्राण चक्षुः श्रोत्राणि यस्य स अनिद्रियः = प्रभु स्पर्शन आदिक इन्द्रियों से रहित हैं। इसलिए अनिंद्रिय हैं।
अहमिन्द्राय॑ः = अहमिन्द्राणामय॑ः पूज्यः स अहमिन्द्राय॑ः = अहमिन्द्रों के द्वारा पूजित होने से अहमिन्द्राय॑ हैं।
महेन्द्रमहित: = महेन्द्रात्रिंशदिन्द्रैर्महितः पूजित: स महेन्द्रमहित: = महेन्द्र आदि ३२ इन्द्रों से पूजे गये। भवनवासियों के दस, व्यंतरों के आठ, ज्योतिष्क देवों के चन्द्र, सूर्य ये दो और कल्पवासी देवों के बारह इन सबके द्वारा पूजे गये इसलिए महेन्द्रमहित कहलाये।
महान् = अर्हमहफूजायां महतीति महान् पूज्य इत्यर्थः - जो पूजा में, । अर्चना में सबसे बड़े हैं, महान् हैं।
उदभव: कारणं कत्ता पारगो भवतारकः।
अगाह्यो गहनं गुह्यं परार्घ्य: परमेश्वरः॥६॥
अर्थ : उद्भव, कारण, कर्ता, पारग, भवतारक, अग्राह्य, गहन, गुह्य, परार्घ्य, परमेश्वर ये जिनराज के यथार्थ नाम हैं।
उद्भवः = उत्प्रधानो भवो जन्मास्य स उद्भवः, अथवा उद्गतो भवः संसारो यस्य यस्माद् वा स उद्भवः = उत्-प्रधान-श्रेष्ठ भव, जन्म जिनका है वे उद्भव हैं या जिनसे भव-संसार उद्गत हुआ है, निकला है ऐसे प्रभु उद्भव हैं। अर्थात् उत्कृष्ट जन्म के धारक तथा संसार के नाशक होने से उन्द्रव कहलाते
कारणं = कार्यतेऽनेन कारणं सृष्टेः कारणं बीजमित्यर्थः = जिससे कार्य किया जाता है या कार्य हो जाता है उसे कारण कहते हैं और प्रभु आदिजिन धर्मसृष्टि के कारण हैं या मोक्ष के कारण होने से कारण हैं।
कर्ता = करोतीति सृष्टिं कर्ता - शुद्ध भावों को करते हैं या धर्मसृष्टि के कर्ता होने से कर्ता हैं।
पारगः = पारं संसारस्य प्रान्तं गच्छतीति पारगः - संसार के अन्त को