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# जिनसहस्रनाम टीका - ९५ * सिद्धिदः सिद्धसंकल्प: सिद्धात्मा सिद्धसाधनः । बुद्धबोध्यो महाबोधिर्वधभाना महोद्धंक: ।।२।।
अर्थ : श्रीवृक्षलक्षण, श्लक्ष्ण, लक्षण्य, शुभलक्षण, निरक्ष, पुण्डरीकाक्ष, पुष्कल, पुष्करेक्षण ये आठ नाम जिनेश्वर के हैं।
टीका - श्रीवृक्षलक्षण: = श्रीवृक्षोऽशोकवृक्षो लक्षणं यस्य स श्रीवृक्षलक्षणः, गंधकुटी उपरि श्रीमंडपो योजनैक प्रमाणो अशोकवृक्षो मणिमयो दिव्यहंसादि पक्षिमंडित: महामंडपशिखरोपरि-स्थितस्कंधः, ततो भगवान् दूरादपि लक्ष्यते तेन श्रीवृक्षलक्षणः - अशोक वृक्ष को श्रीवृक्ष कहते हैं, वह जिनका लक्षण है, ऐसे जिनदेव श्रीवृक्षलक्षण नाम से कहे जाते हैं। गंधकुटी के ऊपर एक योजन प्रमाण का मंडप रचा जाता है, उसके ऊपर एक योजन प्रमाण का मणिमय दिव्य हंसादिपक्षियों से मण्डित महामंडप के शिखर पर इस अशोक वृक्ष का स्कंध है। उससे भगवान दूर से ही भन्यों को दिखते हैं अत: भगवान श्रीवृक्षलक्षण से युक्त हैं।
श्लक्ष्णः = 'श्लिष् आलिंगने' श्लिष्यति अनंतलक्ष्या सहेति श्लक्ष्णः, श्लेषे रितोच्च स्तक - अनन्त ज्ञानादि लक्ष्मी से भगवान् नित्य आलिङ्गित हैं, अनन्त लक्ष्मी सहित हैं अत: श्लक्ष्ण हैं।
लक्षण्यः = लक्षणे अष्ट महाव्याकरणे साधुः कुशलः लक्षण्यः 'यदुगवादितः' - आठ महाव्याकरणों में निपुण कुशल होने से लक्षण्य हैं, उत्तमउत्तम चिहों एक हजार आठ लक्षणों से युक्त होने से भी लक्षण्य हैं।
शुभलक्षणः = शुभानि लक्षणानि यस्य स शुभलक्षणः, कानि तानि शुभलक्षणानि इति चेत् उच्यन्ते पाणिपादेषु श्रीवृक्षः, शंख:, अब्जः, स्वस्तिकः, अंकुशः, तोरणं, चामरं, छत्रं श्वेतं, सिंहासनं, ध्वजः, मत्स्यौ, कुम्भौ, कच्छपः, चक्रं; समुद्रः, सरोवर, विमानं, भवन, नागः, नारी, नरः, सिंहः, वाणः, धेनुः, मेरुः, इंद्रः, गंगा, नगरं, गोपुरं, चन्द्रः, सूर्यः, जात्यश्वः, वीणा, व्यजनं, वेणुः, मृदंगः, माले, हट्टः, पट्ट, कूलः, भूषा, पक्वशालि क्षेत्रं, वनं सफलं, रत्नद्वीपः, वज्रः, भूमिः, महालक्ष्मीः, सरस्वती, सुरभि, वृषभः, चूड़ारत्नं, महानिधिः, कल्पवल्ली, धनं, जम्बूवृक्षः, गरुडः, नक्षत्राणि, तारकाः राज-सदन, ग्रहा:,