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* जिनसहस्रनाम टीका- ८४
तीर्थंकर नामकर्म रूप विशाल पुण्यकर्म का बन्ध किया था अतः वे पुण्यकृत् हैं। 'कृत्' नाश करना भी है अतः पुण्य कर्म का भी नाश करने वाले होने से पुण्यकृत् कहलाते हैं।
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पुण्यशासन: = पुण्यं नि:पापं शासनं मतं यस्य स पुण्यशासन: - पुण्यपवित्र शासन जिसका होता है वह पुण्यशासन कहलाता है। प्रभु आपका शासनमत पवित्र है, निर्दोष है। प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों के द्वारा अबाधित है अतः आप पुण्यशासन कहलाते हैं।
धर्म्मारामः = धृञ् धारणे, नरके पततः प्राणिनो धरतीति धर्म्मः धर्मस्य पुण्यस्य आरामः देवोद्यानं धर्म्मारामः = नरक में गिरने वाले प्राणियों को धारण करने वाला जो धर्म अर्थात् पुण्य के लिए प्रभु आराम देवोद्यान समान हैं। वा आत्म स्वभाव रूप धर्म का आप उपवन हैं, आराम हैं अतः धर्म्माराम हैं। गुणग्रामः = गुणानां मूलोत्तरगुणानं रामः तस्य स गुणग्रामः = मूलगुण २८, उत्तरगुण ८४ लाख, इनका समूह धारण करने वाले प्रभु गुणग्राम नाम धारक कहे जाते हैं अर्थात् सम्पूर्ण गुण आपमें पाये जाते हैं अतः आप गुणग्राम हैं।
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पुण्यापुण्यनिरोधक: पुण्यं च शुभकर्म, 'सद्वेद्य - शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्' ॥ अतोन्यत्पापमिति वचनात् । पुण्यापुण्ययोः निरोधकः पुण्यपापनिरोधकः । संवरावसरे भगवतो न पुण्यमास्त्रवति न च पापमास्रवति द्वयोरपि निषेधकः इत्यर्थः - शुभायु, शुभनामकर्म तथा उच्चगोत्र इसको पुण्य कहते हैं। तथा इनसे अतिरिक्त कर्मसमूह पापरूप हैं । भगवन्त को संवर के समय न पुण्यास्रव होता है और न पापास्रव होते हैं। इसलिए भगवज्जिनेन्द्र दोनों के ही निषेधक हैं अर्थात् शुद्धोपयोग में लीन होकर आपने पुण्य और पापरूप सारी प्रकृतियों का निरोध कर दिया है अतः आप पुण्यापुण्य-निरोधक कहलाते है ।
पापापेतो विपापात्मा विपाप्मा वीतकल्मषः । निर्द्वद्वो निर्मदः शान्तो निर्मोहो निरुपद्रवः ॥ ६ ॥
अर्थ : पापापेत, विपापात्मा, विपाप्मा, वीतकल्मष, निर्द्वद्व, निर्मद, शान्त, निर्मोह, निरुपद्रव ये नौ नाम जिनेश्वर के हैं ।