________________
* जिनसहस्रनाम टीका - ६७* हैं। इन पाँच निर्ग्रन्थ मुनियों के स्वरूप का विवरण श्रुतसागरी (तत्त्वार्थ सूत्र की टीका) में देखो, विस्तार भय से यहाँ नहीं लिखा है।
अचलः = न चलतीत्यचल: - जिनेश्वर अपने स्वरूप से कभी चलित नहीं होते अत; वे अचल हैं।
सोममूर्ति : = सोमस्य चंद्रस्य मूर्तिरुपमा यस्य स सोममूर्तिः शांतत्वादित्यर्थः = चन्द्र की मूर्ति की उपमा जिन्हें दी जाती है ऐसे जिनदेव सोममूर्ति हैं, शांत स्वरूप हैं। वा चन्द्रमा के समान शांतिदायक होने से सोममूर्ति हैं।
सुसौम्यात्मा = सुष्टु सौम्योऽक्रूर: आत्मा स्वभावो यस्य स - सुसौम्यात्मा = अतिशय सौम्य अक्रूर क्रूरता-रहित है आत्मा स्वभाव जिनका ऐसे जिनदेव सुसौम्यात्मा हैं।
सूर्यमूर्तिः = सूर्यस्य मूर्तिरुपमा यस्य स सूर्यमूर्तिः = सूर्य की उपमा जिनकी है ऐसे जिनदेव सूर्यमूर्ति हैं, सूर्य के समान अत्युज्ज्वल हैं। अतः सूर्यमूर्ति हैं।
महाप्रभः = महती अमिता प्रभा केवलस्वरूपं तेजो यस्येति महाप्रभ: - जिनकी प्रभा देहकान्ति महती है, बड़ी है, तथा जिनका केवलज्ञान तेज अमित है वे जिनराज महाप्रभ हैं।
मन्त्रविन्मन्त्रकृत्मन्त्री, मन्त्रमूर्तिरनन्तगः । स्वतन्त्रस्तन्त्रकृत्स्वन्तः, कृतान्तान्त: कृतान्तकृत् ।।८।।
अर्थ : मन्त्रवित्, मन्त्रकृत्, मन्त्री, मन्त्रमूर्ति, अनन्तग, स्वतन्त्र, तन्त्रकृत्, स्वन्त, कृतान्तान्त, कृतान्तकृत् ये दश नाम जिनेश्वर के हैं।
टीका-मंत्रवित् = मंत्र देवादिसाधनं वेत्तीति मंत्रवित् । तथा चोक्तमनेकार्थे - "मंत्रो देवादिसाधने वेदांशे गुप्तनादे च" - देवादिकों को साधने वाले मन्त्र को जानने वाले होने से मंत्रवित् हैं। देवादि के साधन (वश) में, वेद के अंश में तथा गुप्त मंत्रणा में मंत्र शब्द का प्रयोग होता है, उसका आपने कथन किया है, जानते हैं अतः मंत्रवित् हैं।
मंत्रकृत् = मंत्रं प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोगशास्त्र करोतीति मंत्रकृत् = प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग