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. * जिनसहस्रनाम टीका - ७२ * हैं। वा समस्त कार्य कर चुके हैं, कोई भी कार्य शेष नहीं रहा है अत: कृतकृत्य
कृतक्रतुः = कृतो विहितः क्रतुः यज्ञः शक्रादिभिर्यस्य स कृतक्रतुः, अथवा कृतं परिपूर्ण फलं वा कृतौ पूजायां यस्य स कृतक्रतुः, भगवतो भन्यैः कृता पूजा निष्फला न भवति किन्तु स्वगंभोसयायिका भवति तेन कृतक्रतुः, अथवा कृतः पर्याप्तः समाप्तिं नीतः क्रतुर्यज्ञो येन स कृतक्रतुः । उक्तं च योगेन्द्रपादै:
मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स। दोहि वि समरस हूआहं पुज्ज चडाऊ कस्स ।।८२ ॥
कृत-की है इन्द्रादिकों ने क्रतुः पूजा जिनकी ऐसे जिनदेव कृतक्रतु हैं। अथवा जिनेश्वर की पूजा करने से भव्यों को पूर्ण फल प्राप्ति होती है। वह पूजा निष्फल नहीं होती है। वह स्वर्ग-मोक्ष दायिनी होती है। इसलिए जिनेश्वर कृतक्रतु हैं। अथवा जिन्होंने भक्तों की पूजा पूर्णावस्था को पहुंचायी है ऐसे जिनदेव कृतक्रतु हैं। अर्थात् जिनपूजा करने से भक्त भी जब जिनेश्वर हो जाता है तब भक्त भी जिन के समान पूज्य हो गया। इस विषय में योगीन्द्रदेव ऐसा कहते हैं- "मेरा मन परमेश्वर में मिलकर उसमें घुल गया है। परमेश्वर भी मेरे मन में मिलकर एकरूप हुआ है। दोनों ही समरस हुए हैं। अतः मैं पूजा किसकी करूँ ?"
नित्यः = नियतं भवो नित्यः - नियत अपने शुद्ध स्वरूप में सतत रहने वाले जिनेश नित्य हैं।
मृत्युंजयः = मृत्यु अंतकं यमं कृतातं धर्मराजं जयतीति मारयित्वा पातयतीति मृत्युंजयः, नाम्नि त भृव जि धारित पिद मिसहां संज्ञायां खश् प्रत्ययः एजेः खश् इत्यतो वर्तते ह्रस्वा रुषोमोत = मृत्यु, अंतक, कृतान्त, यम, धर्मराज इत्यादि नामधारक मृत्यु को मारकर, गिराकर, जीतकर, अपने शुद्ध स्वरूप को धारण करने वाले जिनदेव मृत्युंजय हैं। मृत्यु, अंतक, यम, कृतान्त, धर्मराज ये सर्व एकार्थवाची हैं।
अमृत्युः = मृप्राणत्यागे म्रियते अनेनेतिमृत्युः । 'भुजिमृझ्या युक्त्युकौ' । न मृत्युः अन्तकालो यस्य स अमृत्युः - प्राणों के त्याग करने को मरण या मृत्यु