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* जिनसहस्रनाम टीका - ६९ *#
अनन्तगः = अनंत आकाश मोक्षं वा गच्छतीति अनन्तगः 'डो संज्ञायामपि' = अनन्त रूप आकाश या अनन्तगुण रूप मोक्ष को, हे जिनराज ! आप प्राप्त हुए हैं। अनन्त पदार्थों को जानते हैं अतः आप अनन्त कहलाते हैं। आप अनन्त ज्ञानी हैं।
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स्वतंत्र : = स्व आत्मा तन्त्रं शरीरं यस्य स स्वतंत्र, स्व आत्मा तंत्र इति कर्तव्यता यस्य स स्वतंत्रः स्व आत्मा इहलोक-परलोक लक्षणद्वयर्थसाधको यस्य स स्वतंत्रः, स्व आत्मा तंत्र करणं परिच्छेदो यस्य स स्वतंत्र, स्त्र आत्मा तंत्र औषधं यस्य स स्वतन्त्रः, स्व आत्मा तंत्र कृत्यं कुटुम्बं यस्य स स्वतंत्रः, स्व आत्मा तंत्र: प्रधानो यस्य स स्वतंत्र, स्व आत्मा तंत्र सिद्धांतो यस्य स स्वतंत्रः । उक्तं च
इति कर्त्तव्यतायां च शरीरे द्व्यर्थसाधके, श्रुतिशाखांतरे राष्ट्रे कुटुम्बेकृति चौषधे । प्रधाने च परिच्छेदे करणे च परिच्छदे, तन्तुवाद्ये च सिद्धान्ते शास्त्रे च तंत्रमिष्यते ।।
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हे प्रभो ! आपका शरीर आपके आत्मा के आधीन है। इसलिए आप स्वतंत्र हैं । अथवा हे प्रभो, आपका आत्मा ही आपका तन्त्र शरीर है। अथवा आपका आत्मा ही आपका तन्त्र कर्त्तव्य है । आत्मस्वरूप को छोड़कर आपका अन्य कुछ तन्त्र कर्त्तव्य है ही नहीं। हे प्रभो ! इहलोक - परलोक रूप स्वार्थद्वय साधना ही आपका तन्त्र आत्मा है। आपका स्वआत्मा ही मोक्ष प्राप्ति के लिए साधकतम तन्त्रकरण है। अपना आत्मा ही अपना तन्त्र शास्त्र है, अन्य नहीं । अपना आत्मा ही आपका तन्त्र परिच्छेद है, अन्य नहीं अर्थात् अपना आत्मा ही आपका ज्ञेय विषय है, अन्य नहीं। आपका आत्मा ही आपके लिए तन्त्र औषध रूप है, अन्य औषध की आपको आवश्यकता नहीं है। आपका आत्मा ही आपका तन्त्र- कुटुंबकृत्य है, अन्य कुटुम्बकृत्य आपको नहीं है। आपका आत्मा ही आपका तन्त्र सिद्धान्त है अन्य नहीं है । कर्तव्य, शरीर, द्र्यर्थ साधक, श्रुति, शाखान्तर, राष्ट्र, कुटुम्ब, कृति, औषध, प्रधान, परिच्छेद, तन्तु, वाद्य, करण, परिच्छद, सिद्धान्त - शास्त्र आदि अनेक अर्थों में तंत्र शब्द का प्रयोग
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