________________
* जिनसहस्रनाम टीका - ६८ * शास्त्रों की रचना करने वाले जिनेश्वर को मन्त्रकृत कहते हैं, क्योंकि शास्त्रों ! को मंत्र कहते हैं। मन्त्री = मकारं च मनः प्रोक्तं त्रकारं ब्राणमुच्यते।
मनसस्त्रीणि योगेन मंत्र इत्यभिधीयते ॥ ___ मंत्रोऽस्यास्ति स मंत्री = मंत्री शब्द में 'म' कार जो है वह मन है और 'त्र' कार का अर्थ रक्षण होता है। मन और रक्षा का योग, संयोग होता है वा मन, वचन, काय ये तीनों एकाग्र जिसके होते हैं उसको मंत्री कहते हैं।
मन्त्रमूर्त्तिः = मन्त्र: सप्ताक्षरोमंत्र: स एव मूर्तिः स्वरूपं यस्य स मंत्रमूर्तिः अथवा मंत्रस्तुतिः सा मूर्तिर्यस्य मा मूर्तिमंहतुति गुल्मी भरकर प्र. ६ रा पश्यंतीति कारणात् मंत्रमूर्तिः, उक्तं च
त्रिदशेन्द्र मौलि मणि रत्न किरण विसरोपचुम्बितं, पादयुगलममलं भवतो विकसत्कुशेशवदलारुणोदरम्। नखचन्द्ररश्मि कवचातिरुचिर शिखराऽगुलिस्थलम्, स्वार्थनियतमनसः सुधियः प्रणमंति मन्त्रमुखरा महर्षयः ॥
अथवा मंत्रेण गुप्तभाषणेन ताल्वोष्ठाद्यचलत्वं तेनोफ्लक्षिता मूर्तिः शरीर यस्य स मंत्रमूर्त्तिः = मन्त्र, सप्ताक्षरों से युक्त मंत्र का ग्रहण यहाँ करना चाहिए | अर्थात् ‘णमो अरहताणं' यह मंत्र ही जिनेश्वर का स्वरूप है। अथवा मन्त्र स्तुति ही मूर्ति स्वरूप जिनका है ऐसे जिनेश्वर की स्तुति करने वाले भगवंत को प्रत्यक्ष देखते हैं। अत: जिनेश्वर मन्त्रमूर्ति हैं। इस विषय में आचार्य ऐसा लिखते हैंहे भगवन् ! देवेन्द्रों के किरीटों में स्थित मणियों की किरणसमूहों से चुम्बित ऐसे आपके चरण, विकसने वाले कमलदल के समान लाल तलुओं से युक्त हैं। नखरूपी चन्द्र की किरणों की कवचों से अति सुन्दर अग्रभाग युक्त अंगुलियों से युक्त हैं। उन चरणों को मंत्रस्तुति पाठ से मुखर मुख वाले आत्महित में जिनका मन लीन हुआ है ऐसे महर्षि नमस्कार करते हैं।
अथवा चंचलता रहित हे जिनराज ! मन्त्र के गुप्त उच्चार से आपके तालुओष्ठादिक मुखावयव चंचलता रहित हैं। अतः आप मंत्रमूर्ति हैं।