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* जिनसहस्रनाम टीका - ६४ * गर्भाधानकाले यजति यजते वा ऋत्विक् । 'ऋत्विक् दधृक् सक् दिगुष्णिहश्चचिप् स्वपि वचि संप्रसारण' इज्, वमुवर्णः ऋत्विग् जातं वेर्लोपशिव्यंजन, चवर्गदृ- । जस्य गः वा विरामे गस्य कः यज्ञकृदित्यर्थः
यज् धातु यज्-देवपूजा, संगति, करण और दान आदि अनेक अर्थ में ! है अत: (ऋ) पूर्व गर्भाधान काल में पूजा को प्राप्त हुए थे वा गर्भाधानादिकाल के समय इन्द्र आकर आपकी पूजा करते हैं अतः 'ऋत्विक्' कहलाते हैं। वा 'ऋ' ऋतु गर्भाधानादि काल में (यज्) पूजा को प्राप्त हुए, 'यज्' धातु का संप्रसारणं (या) का इ आदेश हुआ अत: ‘इज्' हुआ और चवर्ग 'ज' का कवर्ण 'क' आदेश हुआ, अतः ऋतु के उ का व हुआ और ऋत्विक् शब्द बना। अत: ज्ञान यज्ञ के कर्ता होने से भी ऋत्विक् कहलाते हैं।
यज्ञपतिः = यज्ञस्य यजनस्य पाते: स्वामी स यज्ञपतिः - आप यज्ञ के स्वामी हैं, यजन करने वाले के पति हैं इसलिए यज्ञपति कहे जाते हैं।
यज्य : = यज् देवपूजा संगति करणदानेषु यज् इज्यते शतेन्द्रेण स यज्यः, तकिचिनियतिशसियजिभ्यो य एव -
यज्' धातु देवपूजा, संगति, करण और दान अर्थ में है, अत: जो सौ इन्द्रों के द्वारा पूजनीय है अत: 'यज्य' कहलाते हैं। किसी प्रति में यज्य के स्थान में 'यज्ञ' शब्द भी है। जिसका अर्थ है भगवान यज्ञ स्वरूप हैं, पूजनीय हैं अत: यज्ञ कहलाते हैं।
यज्ञांगम् = यज्ञस्य अंगं अभ्युपाय: स्वामिनं विना पूज्यो जीवो न भवतीति यज्ञांगम् आविष्ट लिंगनामेदम् = यज्ञ के अंग - कारण अभ्युपाय है। क्योंकि स्वामी के बिना जीव पूज्य नहीं होता है अतः यज्ञ के कारण होने से आप यज्ञांग कहलाते हैं।
अमृतं = मरणं मृतं न मृतं अमृत मृत्युरहितः इत्यर्थः । आविष्टलिंगमिदं नाम अमृत रसायनं जरामरणनिवारकत्वात्, संसार भोगतृष्णा निवारकत्वात्, स्वभावेन निर्मलत्वात्, वा, अमृतं जलं अनंतसुखदायकत्वात्, वामृतं मोक्ष; अमृतं अयाचितं स्वभावेन लभ्यत्वात्, अमृतं यज्ञशेष:यज्ञे कृतेऽनुभूय मानत्वादमृतं, तदुक्तं