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* जिनसहस्रनाम टीका - ५८ * विभवः = विशिष्टो भवो यस्य स विभवः । विगतो भवो जन्म संसारो यस्य स विभवः अथवा विभाव इत्यपि पाठो वर्त्तते, विशब्देन विशिष्टा: भावा:परिणामाः यस्य स विभावः शुद्धात्मोपयोगी इत्यर्थ: अथवा विशिष्टा; भा कान्तिस्तां रक्षति अवति इति विभावः, ‘अवरक्षपालने' अवतीत्यवः = विशिष्ट भव के धारक प्रभु हैं, क्योंकि वे तीर्थंकर नामकर्म के उदय से अन्य तद्भवमोक्षगामी पुरुषों में तथा शलाका पुरुषों में भी श्रेष्ठ माने जाते हैं। अथवा जिनका जन्म तथा संसार-भ्रमण नष्ट हुआ है अतः वे विभव हैं। अथवा विभाव ऐसा भी पाठ है। विशब्द से विशिष्ट तथा भाव शब्द से परिणाम जिनके हैं वे विभाव हैं। अर्थात् जिनेश्वर शुद्धात्मोपयोगी होने से विशिष्ट परिणाम धारण करने वाले हैं। अथवा वि विशिष्ट जो भी कान्ति उसको अवति रक्षण करने वाले प्रभु को विभाव कहना चाहिए।
विभयः = विशिष्टा भा प्रभा येषां ते विभास्तान् यातीति विभय: विजितसर्वकांनिः, अथवा विनष्टानि भयानि सप्तप्रकाराणि इहलोक - परलोक - वेदनाआकस्मिकात्राणागुप्तिमरणजनितानि यस्य यस्माद् वा भत्र्यानामिति स विभयःवि- विशिष्ट, भा प्रभा - कान्ति जिनकी है वे जन विभा हैं। उनको याति भगवान अपनी कान्ति से पराभूत करते हैं अत: वे जिननाथ विभय हैं। अथवा विनष्ट हुए हैं इहलोकभय, परलोकभय, वेदनाभय, आकस्मिकभय, अत्राणभय, अगुप्तिभय तथा मरणभय जिनके वा जिनसे भव्यों के, वे प्रभु विभय हैं।
वीर : = विशिष्टा 'ई' लक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीस्तां राति ददाति यो भक्तानामिति वीर: वार्हन्त्य मुक्तिदाता इत्यर्थः, अथवा कर्म-रिपुसंग्रामे वीर इव वीरः = विविशिष्ट ई लक्ष्मी - को - मोक्षलक्ष्मी को जो जिननाथ राति भक्तों को देते हैं वे वीर हैं। अर्थात् वे भक्तों को अर्हत्पद देकर अनन्तर मुक्ति को देते हैं। अथवा कर्मशत्रुओं को वीर के समान नष्ट करते है। वा अनन्त बलशाली होने से वीर हैं।
विशोकः = विगत; शोको यस्य यस्माद्वा स विशोकः अथवा विशिष्ट शं सुखरूपमेव कः आत्मा यस्य स विशोक: यस्माद् भव्यानां यस्य वा इति विशोकः अनंतसौख्यं मुक्ति-स्थान स्थायी आत्मा यस्येत्यर्थः । 'शं सुखं शरणं