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* जिनसहस्रनाम टीका - ३२ * धातु, शोचति शुचि होता है निर्मल होता है पवित्र करता है वह शुचि कहलाता
अथवा, परमब्रह्मचर्य प्रतिपालनेन निजशुद्धबुद्धकस्वभावात्मपवित्रतीर्थनिर्मल भावना जल प्रक्षालितांतरंग शरीरत्वात् शुचिः परम पवित्र इत्यर्थः ।
अथवा, परम ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने से उत्पन्न निज शुद्ध बुद्ध । एक स्वभावात्मक पवित्र तीर्थ निर्मल भावनारूप जल के द्वारा प्रक्षालित अंतरंग शरीर होने से हे भगवन् आप शुचि हैं, परम पवित्र हैं।
यशस्तिलक चम्पूनामक महाकाव्य में सोमदेव सूरि ने कहा है
आत्माशुद्धिकरैस मासंग हार्मदुर्जनैः ! स पुमान् शुचिराख्यातो नाम्बुसंप्लुतमस्तकः॥
आत्मा को अशुद्ध करने वाले कर्म रूपी दुर्जनों के साथ जिसकी संगति नहीं है वह पुरुष शुचि (पवित्र) कहलाता है। केवल जल से मस्तक धोने से या स्नान करने मात्र से कोई पवित्र नहीं होता है।
अथवा, अष्ट कर्म रूपी काष्ठ (ईंधन) के समूह का नाश करने में समर्थ होने से आप शुचि हैं, अग्निमूर्ति हैं।
अथवा, जन्म से ही आप मल, मूत्र, पसीना से रहित हैं अतः आप शुचि हैं।
अथवा, निर्लोभरूपी जलस्नान के द्वारा अभ्यन्तर पापमल का प्रक्षालन करने वाले होने से आप शुचि हैं।
हेमचन्द्र अनेकार्थ कोश. में लिखा है
शुचि शुद्धेसितेऽनिले। ग्रीष्माषाढानुपहेतुषूपधा शुद्ध मंत्रिणि । शृंगारे च। इति हेमचन्द्रः।
शुद्ध श्वेत वायु, ज्येष्ठ, आषाढ़ का महीना, अनुपहन (जिसका कोई खण्डन नहीं कर सके) आरोग्य, उपधा, शुद्ध लोभादि दोष रहित मंत्री और शृंगार अर्थ में शुचि शब्द का प्रयोग होता है।